Monday, June 29, 2020

संतोषी सदा सुखी

         "संतोषी सदा सुखी"
            अभी कल ही कहीं पढ़ रहा था, "बिल गेट्स" के अनुसार, "यदि क्षणिक सुख चाहते हो तो गाने सुन लो। यदि एक दिन का सुख चाहते हो तो पिकनिक पर चले जाओ। एक सप्ताह का सुख चाहते हो तो यात्रा पर चले जाओ। एक दो महिने का सुख चाहते हो तो शादी कर लो। कुछ सालों का सुख चाहते हो तो धन कमाओ लेकिन यदि जिन्दगी भर का सुख चाहते हो तो अपने काम से प्यार करो।"
          उपरोक्त सब बातों से ये समझ आता है कि आदमी जिन्दगी जीने के लिये और बेहतर जीने के लिये कितनी मेहनत करता है और फिर भी बढ़िया जिन्दगी जीये बिना ही चला जाता है। आप सबने अपनी जिन्दगी में कभी न कभी ट्रकों के पीछे वो लाईन तो पढ़ी होगी "संतोषी सदा सुखी"। यकीं मानिये इन शब्दों में जीवन का सार छिपा है। संतोष,धैर्य,धीरज,दिलासा,सब्र और तसल्ली पाना और इसे स्वीकारना अपने आप में एक किताब है। कहते हैं ना "धैर्य रखना हर किसी के बस का नहीं है।" क्योंकि धैर्य या संतोष एक दिन में नहीं आ जाता, इसके लिये खुद को तैयार करना पड़ता है, हर बात की गहरायी को समझना होता है और तब निर्णय लेना होता है।
           आनन्द मूवी का वो डायलॉग तो याद होगा आप सबको, जिन्दगी लम्बी नहीं, बड़ी होनी चाहिये बाबूमोशाय। मगर ये बड़ी या लम्बी जिन्दगी का चक्कर भी तो समझ आना चाहिये और मैंने बस ये समझा है कि हर पल को, क्षण को भरपूर जीओ, ऐसे कि कल है ही नहीं और कुछ लोग अपने पास हमेशा ऐसे रखो जिनसे आप अपना दिल खोल सको, जो हो बोल सको। कहीं पढ़ा था मैंनें, अगर दिल खोल लिया होता यारों के साथ, तो खोलना न पड़ता आज औजारों के साथ।" तो जीते रहिये, खुश रहिये और बढ़ते रहिये।
          मैं पढ़ता बहुत हूं और जब किसी दिक्कत में फसता हूं तो वही बांतें समझ आती हैं, जैसे कहीं पढ़ा था, कि "जब वो दिन(अच्छे दिन) नहीं रहे तो ये दिन(कठिन दिन) भी नहीं रहेंगें" और धैर्य रखता हूं, यकीं मानिये कुछ न कुछ हल मिल ही जाता है। वो मूवी देखी है आपने "जिन्दगी न मिलेगी दोबारा" उसमें नायक की इच्छायें देखी थी, कि ३०-४० तक कमाऊंगा और फिर आराम से मौज करूंगा, तब नायिका कहती है, किसे पता है तुम ४० तक जिन्दा भी रहोगे या नहीं? बात बस इतनी सी ही है मित्रों। भविष्य की खुशी के चक्कर में हम आज बर्बाद कर रहे हैं। मैं ये नहीं कहता कि भविष्य की प्लानिंग न करिये, करिये और जरूर करिये मगर आज को भी जी लिजिये और समय मिलते ही खुद को, परिवार को और अपने दोस्तों को दिल से लगाइये। यही वो पल हैं जो याद बन जाते हैं।
           अगर आप जिन्दगी को समझना चाहते हैं तो खुशी को पाना छोड़िये, उसे ढू़ढना सुरु किजिये। छोटी छोटी बांतों में, बचपन में, आपसी लगावी बहस में और यारों में। बाकि कितना भी कमा लो या न कमाओ तनाव तो आना ही है। निर्भर आप पर करता है आपको जिन्दगी बड़ी जीनी है या लम्बी।
✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०
     


Monday, June 15, 2020

swarnim sahitye

सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये"


"सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये"

कल की ही घटना है,
मगर लगता जैसे अर्सा हुआ प्रभात हुये,
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

तृष्णा से परिपक्वता तक,
जरूरत से आपूर्ति तक,
बिहार से बॉलीबुड तक,
तुम हर जगह माहिर साबित हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

कभी काई पो छे, कभी राब्ता,
कभी सोनचिड़िया, कभी दिल बेचारा,
कभी धोनी तो कभी छिंछोरा,
बन सबके दिल पर सवार हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

अदाकारी ऐसी की नजर न हटे,
किरदार की पकड़ से न कभी भटके,
हर पैमाने पर जो खरा उतर सके,
दूसरे नायक जाने कब मन से बाहर हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

आवाज में रौब, कपोल पर चमक,
लचीला बदन, सबकुछ सीखने की ललक,
हर जगह गूंजतीं व्यक्तित्व की खनक,
फिर बिन कुछ बोले क्यों चुप हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

खबर आयी तो यकीं न हुआ,
चक्षु चौंके, मन स्तब्ध हुआ,
मस्तिष्क स्थिल, दिल धक् हुआ,
न सूझा कुछ, विचार भी आहात हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

कितनों की आशा ज्योत थे तुम तो,
कितनों के प्रेरणास्त्रोत थे तुम तो,
सकारात्मकता से ओत-प्रोत थे तुम तो,
फिर क्यों हमारे नैंनों से ओझल हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

भावपूर्ण श्रद्धाजंलि🙏💐

सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

सिकन्दरा, आगरा


Thursday, June 11, 2020

"मौत पहचानती आंखें"

  "मौत पहचानती आंखें"     

                 युधिष्ठिर जब स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे तो उनके साथ, उनका कुत्ता भी था। जो साथ में स्वर्ग गया। सृष्टि के प्रारंम्भ से उन कुछ प्रमुख जानवरों में से कुत्ता भी है जो हमेशा से मानव के साथ रहता आ रहा है और अपनी वफादारी के सबूत देता रहा है। मैंनें विज्ञान में अक्सर पढ़ा है कि उन जानवरों में जिन्हें स्वप्न आते हैं, उनमें कुत्ता भी है और इनके पास "आंखें जो मौत देख सकती हैं", होती हैं। इन्हें किसी भी प्रकार की बड़ी घटना का पहले से अंदेशा हो जाता है और इनका व्यवहार बदल जाता है।
         टाबी एक एनीमल लवर है और खासकर कुत्ता प्रेमी। जादा उम्र नहीं है उसकी मगर प्यार जताने की उम्र भी कहां होती है। २४ साल की उम्र में उसने अपने मोहोल्ले के कुत्तों में काफी प्यार कमा लिया। रोज शाम को ३-४ बिस्किट के पैकेट ले जाकर बांटता वो और कुत्ते भी दुम हिला हिला के उसके चारों ओर घूमते, और उसकी छाती तक चढ़ जाते। उन सबमें स्वीटी बहुत प्यारी थी उसे। व़ो जब भी कुछ भी खाने का लेकर जाता स्वीटी भागकर उसके पास आ जाती, पूंछ हिलाती हुई, सर आगे पीछे करती हुई और अगले पैरों को मोड़कर पिछले पैंरों में घुसा लेती। कभी कभी तो लाड़ में लेट जाती और उल्टी हो जाती। टाबी का पीछा करते-करते कभी-कभी तो घर के गेट तक आ जाती मगर मां-बाबू जी को कुत्ते पसन्द नहीं थे तो टाबी गेट से ही विदा कर देता उसे।
          काम से जब कभी देर रात टाबी लौटता तो कितना भी अंधेरा हो और बाकी कुत्ते भले ही दूर से न पहचान पा रहे हो टाबी को और भौकं रहे हो, मगर स्वीटी दूर से ही पूंछ हिलाती हुई आती और लगभग उसके ऊपर चढ़ सी जाती। जो भी कुछ उसके पास खाने का होता, दे देता या न भी होता तो उसे कुछ वक्त जरूर देता। स्वीटी उसको मौहल्ले के गेट के आस पास ही मिलती थी अक्सर। ये जो मोहल्ले में कुत्ते बढ़े थे वो सब स्वीटी की पैदाईस थे और टाबी को जब भी पता चलता की स्वीटी गर्भवती है वो मां से कहकर कुछ न कुछ बनवाता उसके लिये, आते जाते ख्याल रखता उसका।
            अनेंकों बार स्वीटी के अजीब व्यवहार से बाहरी लोगों को मोहल्ले में घुसने से रोका गया। एक बार तो जब स्वीटी टाबी के घर के बाहर एक ही जगह को देखकर बार-बार भौंक रही थी, तो टाबी देखने गया कि माजरा क्या है तो पाया कि वहां एक बड़ा काला सर्प था, जिसे ये घेरे खड़ी थी और भौकं-भौक के उसे आगे न बढ़ने दे रही थी। खैर बाद में सर्प को पकड़कर स्वीटी को खूब शाबासी मिली। ऐसे अनगिनत किस्से थे जिसमें स्वीटी का भरपूर योगदान रहा। आप उसे रोटी दे, न दें मगर वो पूरे मोहल्ले की अघोषित और बिना वेतन की चौकीदार थी।
        बचपन कब बुढ़ापे मैं बदला पता न चला, और स्वीटी धीरे धीरे कमजोर होने लगी, उसकी खाल सी लटक गयी थी, और दांत भी ज्यादा नहीं बचे थे। वो फिर भी अपना कर्तव्य निभाने में अपने जवान बच्चों के साथ लगी रहती कि जैसे उन्हें सीखा रही हो स्वामी भक्त क्या होता है। एक दिन जब टाबी काम पर जा रहा था तो स्वीटी उस पर खूब भौंकी, टाबी ने प्यार से सर पर हाथ फिराया और वो शांत हो गयी। टाबी ने कुछ बिस्किट दिये और वो बस टाबी को देखती रही, टाबी ने उसकी आंखों में अजीब सी मायूसी देखी फिर बोला,"शाम को मिलतें हैं स्वीटी।" और चला गया।
          टाबी शाम क़ो लौटा तो हाथ पैर धोकर जल्दी बैग से बिस्किट निकालें और मम्मी से बची कुची रोटियां मांगी और निकल गया स्वीटी से मिलने, उसने खूब सीटी बजाई, आवाज लगाई, बाकी कुत्ते आ गये मगर स्वीटी कहीं नहीं दिखी। वो उनको खाना खिला के स्वीटी की तलाश में निकला तो थोड़ी बहुत मस्सक्कत के बाद ही स्वीटी को पार्क की उन झाड़ियों में पाया, जहां व़ो अक्सर अपने बच्चों को जन्म देती थी। आज निश्छल और भाव विहिन पड़ी थी, टाबी ने खूब सीटी बजाई मगर वो तो अपना कर्तव्य पूरा कर सेवानिवृत्त हो चुकी थी। टाबी दु:ख से वहीं बैठ गया और सुबह वाली स्वीटी की आंखें याद आने लगी, जब टाबी ने बोला था कि शाम को मिलतें हैं, और वो जैसे अपनी मौत देख चुकी हो, कह रही हो कि बाबू शाम तक का वक्त नहीं है हमपे। वो भौकं भी इसलिये रही थी क्योंकि वो शायद आज टाबी के साथ रहना चाहती थी। टाबी की आंखों में आंसू थे और हाथ में कुछ बिस्किट के पैकेट।
स्वरचित✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

चीटी

"चींटी"

पग पग धरती, आंगे बढ़ती,
कुछ सकुचाती, कुछ ठहरती,
ऊंचे-नीची हर जगह रेंगती,
रूकने का कभी नाम न लेती.....

तिनके सी है पर कौशल बड़ा है,
इनके आगे न कोई ठिका है,
मन इनका भी कभी अड़ा है, कभी लड़ा है,
मनके हिसाब से कब हैं चलती
पग पग धरती, आंगे बढ़ती,
कुछ सकुचाती, कुछ ठहरती....

हो झुंड में या अकेले,
हिम्मत नहीं, कोई पंगें लेले,
हर मौसम को ये सह लें,
गज से भी तनिक न डरती
पग पग धरती, आंगे बढ़ती,
कुछ सकुचाती, कुछ ठहरती....

चींटीं नहीं, अध्यापक है ये,
निरन्तरता की वाहक है ये,
सक्रियता सीखाने में सहायक है ये,
फिर भी कभी घमण्ड न करती
पग पग धरती, आंगे बढ़ती,
कुछ सकुचाती, कुछ ठहरती,

कई रंग और कई प्रजाति हैं इसकी,
सब सिखाती शिक्षा देखो एक सी,
चलते रहो बस दुनिया की ऐसी-तैसी,
ये दुनिया तो हमेशा ही है रोकती
पग पग धरती, आंगे बढ़ती,
कुछ सकुचाती, कुछ ठहरती....
स्वरचित✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०


Wednesday, June 10, 2020

"हीटर और ऐलीमेंट"

     "हीटर और ऐलीमेंट"

           कहानियों का क्या है, कहानी तो बनती रहती हैं, अच्छी-बुरी, लघु-दीर्घ, मनमोहक-हृदय विधारक। जिन्दगी के हर मोड़ पर एक कहानी तैयार होती है, बस जरूरत है पात्रों और घटनाओं को संजोनें और समझने की और ऐसी ही एक कहानी है, हीटर और एलीमेंट  की। ये कहानी हीटर की तरफ से है।

            मैं(हीटर) जब निर्मित हुआ तो दो-तीन तरह की मिट्टी मिलायी गयी और फिर पकाया गया, उससे काफी मजबूत हो गया मैं और फिर मुझमें चीनी मिट्टी का एक सोकेट फिट किया गया, जिससे उसमें तार जोड़े जा सके, और मुझमें विद्युत बह सके। ऐसे मेरा ८०प्रतिशत शरीर तैयार हो चुका था मगर आत्मा का आना बाकी था अभी और फिर पीली सी पिन्नी में गोल-गोल वो बैठी थी, पैक बिल्कुल। वो आयी और मुझमें समा गयी। बलयाकार उसका शरीर, मेरे शरीर में ऐसे समा गया कि जैसे मेरा निर्माण उसके लिये हुआ हो और वो सिर्फ मेरी ही हो।

           बिजली के तार जोड़ दिये गये और वो सुर्ख लाल चमक उठी, उसका अंग-अंग मेरे शरीर में चमक रहा था, मुझमें दहक रहा था और मैं बस अपने आपको उसके मुझमें समाहित होने से निर्जीव से सजीव महसूस कर रहा था। मालिक ने मेरे ऊपर एक चायदान रखा, उसमें थोड़ा पानी था। हम दोनों ने मिलकर उसे पकाया, चाय बनी और मालिक को हमारे जिस्म की गर्मी का एहसास हुआ। ये रोज का सा हो गया था अब, वो मुझमें समायी रहती और जैसे ही कोई बटन दबाता, वो मुझमें जान ले आती। कितनी सब्जीयां, कितनी दालें, पनीर, रोटियां और न जाने क्या-क्या हम दोनों ने साथ बनाये।
        हम दोनों की जोड़ी लाजबाब थी। मैं तो बड़ा खुश रहता था। फिर एक दिन कुछ शॉर्ट-सर्किट सा हुआ और वो धीरे से बन्द हो गयी, जैसे लगातार काम करने की वजह से बिमार हो गयी हो। मालिक ने पेचकस से कुछ दवाई दी और वो फिर होश में आयी। हम दोनों ने फिर से काम प्रारम्भ कर दिया मगर अब उसमें पहले जैसा तेज नहीं बचा था। एक दिन वो टूट गयी बीच से, जैसे आंदोलन पर हो, "मुझसे नहीं होता अब ये काम।" मगर मालिक भी पक्का जुगाड़ु, उसको फिर जोड़ दिया गया। हम फिर काम पर लगे, मैंनें भी उसे समझाया, "कि क्या फायदा, काम पर ध्यान दो।" वो आंखें में थोड़ी सी लालिमा लाये बोली, "प्रिये तेरी मेरी कहानी यहीं तक थी, अब मेरा सफर खत्म होता है, चलती हूं मैं।" मैं पूछता रह गया, "कहां जा रही हो?"और वो इस बार २-३ टुकड़ों में टूट गयी, यही अंत था उसका शायद। उसके काले पड़े ठण्डे शरीर को मैंनें काफी वक्त खुद में रखा। काली इसलिये भी हो गयी थी वो क्योंकि कभी-कभी उस पर दूध-दाल आदि फैल जाता था, मालिक की गल्ती से और अपनी इस कुरूपता का बदला भी वो कभी सब्जी जला के या मालिक को हल्का-फुल्का करेंट लगा के ले लेती थी।
       खैर मालिक आया और उसने अपने झोले से वही पीली पिन्नी फिर से निकाली और मेरी दूसरी शादी कर दी गयी। ये तो पहले वाली से भी जादा तेज के साथ आयी थी और हम लोग फिर से काम में लग गये।
स्वरचित✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

Tuesday, June 9, 2020

"अनुकूलन"

    "अनुकूलन"

         समय कभी-कभी परिस्तिथियों को ऐसे बनाता है कि आप चाह कर भी उनसे बच नहीं सकते, आपको खुद को बदलकर या स्तिथी का सामना करके उसके अनुकूल बनना ही होता है। मेरे ख्याल से यही संसार का नियम भी है, जो बदलाव नहीं स्वीकारता या अनुकूलन नहीं अपनाता वो हौले हौले मिट जाता है।
         घर पर बैठी सुधा अपनी ही मां के ताने सुन रही थी, इसी की गल्ती होगी,ये ही सब नाटक करती है, हमेशा इसी ने नाक में दम किया... वो बस सुन रही थी और अतीत में खो गयी। तीन भाई बहनों में वो सबसे छोटी है, दो बड़े भाई थे, तो हमेशा ही वो कैद और बंधन में‌ रही। उसने भी वैसे ये सब अपनी नियति सी मान लिया था। जैसा बाबा ,मां या भाई बताते, करती रहती। उसके ना कोई सपने थे और कोई इच्छा ही थी खुद के लिये। कम बोलने वाली, खुद में रहने वाली और बस अपने काम से काम रखने वाली ऐसी लड़की बन गयी थी वो।
         पढ़ने में भी ठीक ठाक थी। बड़ा भाई कालेज छोड़ने-लेने जाता, तो छोटा भाई ट्यूशन तक जाता, शाम को पिताजी भी उससे पढ़ाई के बारे में जरूर पूछते। उसकी कोई घनिष्ट सहेली भी नहीं थी, क्योंकि दोस्ती वक्त मांगती है और वक्त उसके पास था ही नहीं। ९क्लास में आयी तो किसी ने उससे नहीं पूछा कि उसको कौन से विषय लेने हैं या क्या पढ़ना है,बनना है। बस बड़े भाई ने अपने हिसाब से फार्म भर दिया और उसने स्वीकार लिया। ये हमेशा का ही था वैसे भी। इस दौरान कई लव शावक उसके पीछे रहे और वो समझ भी जाती मगर वो थी ही इतनी निष्कीर्य की वो सब खुद ही अपना रास्ता नाप लेते।
       बारहवीं के बाद कॉलेज बाबा ने बता दिया और प्रवेश दिला दिया गया। रोज छोटा भाई छोड़ आता और वही लेकर आ जाता। सुविधा के लिये उसको एक छोटा फोन दिलवा दिया गया था, जिससे वो बहुत कम ही लगाव रखती, बस अपनी स्तिथी बता देती, कि इतने बजे क्लासेस खत्म होंगी। उसने अब तक सब कुछ अपनी नियति और घरवालों पर छोड़ रखा था,उनहीं के अनुकूल थी वो। तभी मंयक ने एक दिन उसको प्रपोज कर दिया, पसन्द तो वो भी मंयक को करती थी मगर वो तटस्थ रही है हमेशा। मिल जाये तो ठीक, न मिले तो ठीक।
       उसने मना कर दिया और बस इतना बोली,मंयक मैं ये सब वाली नहीं हूं, तुम भी अपना समय मेरे लिये बर्बाद न करो, कहीं और सोचो। और चल दी। ये बात करते हुये छोटे भाई ने देख लिया और उसने बाबा को बता दिया। बाबा ने दुगुनी गति से लड़का ढ़ूढ दिया और तय कर दी गयी शादी। हमेशा की तरह सुधा को सब स्वीकार था। शादी के बाद ससुराल पहुंची तो एक माह में ही सास-ननद ने हर तरह से कोस कोस कर उसका बुरा हाल कर दिया।
    वो तो लगभग धैर्य की देवी थी ही, इसे ही उसका घमण्ड समझा गया, कि ये जादा बोलती नहीं है, सीखना नहीं चाहती कुछ भी, बात नहीं करती और तो और कुछ भी कहते रहो जबाब नहीं देती। उन लोगों को क्या पता, जब आपने पौधे के चारों तरफ जाल लगा ही दिया है तो वो तो सीधा बढ़ेगा ही, अब जाल हटा भी दो तो क्या फायदा उसे ऐसे ही रहने में मजा जो आने लगा और आज उसका पति उसे घर छोड़ गया, ये कहते हुये कि इस पत्थर की मूरत को आप रखिये, रोबोट सा बना दिया है बिल्कुल। जब घर में सब ठीक हो जायेगा, ले जाऊंगा मैं।
        मां अभी भी बड़बड़ा रही थी और सुधा को पता ही नहीं था कि उसका अपराधी कौन है, घरवाले, समय या वो खुद।
स्वरचित✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०


Thursday, May 28, 2020

"कच्चा आम"

"कच्चा आम"

क्यूं ताजगी नहीं मिलती भोर से,
क्यूं नीरस लगती तुम्हें ये शाम,
जीवन को इतना भी न समझों,
के रह न पाओ फिर "कच्चा आम"

थोड़ा सीखोगे,थोड़ा पढ़ोगे,थोड़ा बढ़ोगे,
त्वरित का नहीं है ये काम,
गर जल्दी पका लोगे खुद को
तो समझ परे है ये "कच्चा आम"

कच्चा होना, पक्के से बेहतर है,
गांठ बांध लो बस ये ज्ञान,
गहरे हो गये गर जग के आगे,
पका न सकोगे फिर "कच्चा आम"

कच्चे-पक्के में बस ये अन्तर है,
कच्चा तत्पर, पक्के को है आराम,
गिर गये जो पक के डाली से,
जोड़ न सकोगे फिर "कच्चा आम"

अंकुर से बाहर, धूप की मार तक,
सब सहना सिखाता है वो राम,
स्वघोषित परिपक्व हो गये तो,
फिर अचार ही बनेगा "कच्चा आम"

ललक झुकने की तरु से सीखों,
तभी बन पायेगा कुछ नाम,
हवाओं की रवानगी को न समझे,
कुचला जायेगा फिर "कच्चा आम"

अपनी करनी में सोच को जगह दो,
मत करो बेमतलब स्व: गुणगान,
तारिफें सब तुम कर लोगे,
क्यूं चखेगा, फिर कोई "कच्चा आम"

पवार कहता, सतत् को स्वीकारो,
जिज्ञासा को न दो आराम,
परिपूर्णता जीवनभर न आती,
इसलिये बने रहो "कच्चा आम"

स्वरचित
किसी को कुछ समझ न आये तो "कच्चे आम" बन के कमेन्ट में पूछ लें।🙏
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०


Tuesday, May 26, 2020

"किस्सा किस्मत और कर्म का"

"किस्सा किस्मत का"

         बिना कर्म के कुछ भी सम्भव नहीं, किस्मत भी उन्हीं का साथ देती है जो कर्म करते हैं, और किस्मत के भरोसे नहीं बैठतें। मगर आप किस्मत की अनदेखी भी नहीं कर सकते क्योंकि पवार  ने बहुत से लोगों को सिर्फ किस्मत के सहारे चमकते देखा है, हां, लेकिन वो चन्द लोग ही होते हैं, देर से ही सही असली सफलता की गारन्टी तो आपकी मेहनत ही देती है।
         चमन और रेखा कालेज में मिले और दिल दे बैठे। चमन बड़ा सीधा-साधा लड़का था और रेखा भी लगभग उसी के जैसी थी, दोनों ने साथ स्नातक किया और फिर परा स्नातक भी। इन पांच सालों में वो एक-दूसरे को भली-भांति जान गये थे और साथ जीने-मरने के अनकहे वादे भी कर चुके थे। चमन ने एक स्कूल में पढ़ाना सुरू कर दिया था और थोड़ा बहुत कमा के सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा था। घर से इतना मजबूत नही था वो, ये बात रेखा भी जानती थी। फिर रेखा का फोन आया एक दिन और बताया कि घर पर शादी की बात चल रही है, तुम आ जाओ। चमन बोला, मैं क्या बात करूंगा…?  रेखा बोली, कुछ भी करना, कल आ जाना जरूर, मैं सबको बता दूंगी। चमन ने कोई विकल्प न देख हां कह दी।
       रेखा घर की इकलौती लड़की थी, घरवाले उसकी हर बात सुनते थे।‌ माहौल बन चुका था, जैसे ही चमन पहुंचा, सबसे नमस्कार हुई और जानकारी लेने का दौर सुरु हुआ। रेखा के पापा बोले, बेटा आपका कोई निश्चित काम नहीं है और न नौकरी, कैसे बात बनेगी, बताओ। चमन बोला, जी, तैयारी कर रहा हूं, जल्द कुछ कर लुंगा। पापा बोले, देखो, हम दबाब बनाने वाले अभिभावक नहीं है, बेटी जहां कहेगी, कर देंगें शादी मगर बेटा हम भी तो कुछ देखेंगें और ज्यादा समय तुम्हारा न लेते हुये, बस इतना कहूंगा कि समय बता दो मुझे, कब तक इन्तजार करूं, ताकि तुम कहीं पहुंच सको और मैं निश्चित हो शादी कर सकूं। चमन ऐसी स्तिथी में पहली बार था और बोला जी, छ: माह का वक्त दे दीजिये। पिताजी मुस्कुरा के बोले, एक साल का दिया। मिलते हैं फिर, और हां मुझे वास्तव में इन्तजार रहेगा, तुम्हारे सफल होने का, निराश मत करना। कह के पिताजी निकल गये, और जब चमन निकला तो रेखा गेट तक छोड़ने आयी और बोली, देखो, मेहनत तो करनी होगी, तुम भी करो और मैं भी। देखते हैं क्या होता है फिर।

           चमन घर आ गया, बहुत सोचा और लगा कि यहीं वक्त है कुछ करने का वरना जिन्दगीभर दर्द भरे गाने सुनता रह जाऊंगा और छोटी-मोटी नौकरी छोड़,कष्ट भुगतता हुआ वो लग गया तैयारी में और ऐसा लगा कि सबकुछ भूल गया। न खाने की सुध न किसी से मतलब,बस किताबें, किताबें और किताबें। उसने रेखा से बात करना भी लगभग बन्द कर दिया, रेखा भी ये समझती थी सुरक्षित भविष्य के लिये ये दूरी जरुरी है और वो भी कुछ न कुछ पढ़ती रहती। कभी-कभी जब दोनों की बात होती तो चमन बताता की क्या पढ़ रहा है या कितना पढ़ लिया और क्या समझ नहीं आ रहा उसे। रेखा तेज थी पढ़ने में कुछ समस्यायें फोन पर ही हल कर देती।
      ९ महिने की घनघोर तैयारी के बाद, परिक्षा की तिथी भी घोषित हुई और चमन परिक्षा भी देकर आया, मगर उम्मीद के मुताबिक नहीं कर पाया तो रेखा ने समझाया, अरे कोई नहीं, हो जायेगा तुम्हारा, तुमने पूरी मेहनत की है। चमन के लिये ये शब्द काफी नहीं थे वो अगली परीक्षा की तैयारी में लग गया, २ महिने बचे थे बस, रेखा के पापा को बताने को कुछ नहीं था, उसके पास और अगली परिक्षा भी अभी निश्चित नहीं थी। भविष्य और प्यार को अंधेरें में देख एक रात वो टूट गया, और रेखा से बात करते-करते रो पड़ा। बोले जा रहा था, मैंने पहले बहुत वक्त बर्बाद कर दिया यार, सही समय पर मेहनत कर लेता तो हमारा कुछ हो जाता मगर मैं अब क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा। रेखा ने खूब तसल्ली दी, मगर वो काफी नहीं थी।
        और २ महिने भी बीत गये, परिक्षा का परिणाम भी आया और चमन ३ नम्बर से चयन पाने से रह गया और पूरी तरह टूट गया। रेखा ने खूब फोन किये उसे मगर उसकी हिम्मत नहीं थी उठाने की। फिर नये नम्बर से फोन आया, चमन ने उठाया और उधर से भारी सी आवाज आयी, कैसे हो चमन बेटा, मैं रेखा का पिता बोल रहा हूं। निराश आवाज में चमन बोला, जी नमस्ते। क्या हुआ बेटे रिजल्ट का? जी, फेल हो गया मैं, और दबती सी आवाज में बोला चमन। तो अब क्या करना है बेटा जी। जी, जो आपको ठीक लगे, मैं तो फेल ही हूं, और चमन ने फोन काट दिया।
       और चमन ने सब कुछ किस्मत पर छोड़ एक बार फिर किताबें उठायी, लग गया फिर से। दो दिन बाद रेखा, अपने मां-बाप के साथ चमन के घर पर खड़ी थी और उन लोगों को अन्दर बैठाया गया, चाय नाश्ता लगाया गया। चमन और रेखा दोनों सर झुकाये बैठे थे, रेखा के पापा बात सुरू करते हुये चमन के पापा से बोले, कि देखिये हमारे और चमन के बीच एक डील हुई थी, और चमन उसमें फेल हो गया। हम लड़की वाले हैं, हमें तो आगे बढ़ना ही है, और हमने रेखा की शादी तय कर दी है,उसी की मिठाई देने परिवार सहित आया हूं, बेटे दिल छोटा मत करना, मगर एक बाप की नजर से देखोगे तो मैं गलत नहीं हूं। चमन की आंखों से दो आंसू टपक पड़े, बेइन्तेहा प्यार जो करता था रेखा से, और ये अंतिम मौका था रेखा को देखने का। वो खड़ा होकर रूआसीं सी आवाज में बोला, क्या मुझे एक मौका और मिल सकता है अंकल? रेखा के पापा सख्त होते हुये बोले, नहीं और उसकी तरफ मिठाई का डब्बा बढ़ाते हुये बोले, अब तुम देखो, जो करना है, जब भी करना हो, कर लेना। रेखा तो जा रही है।
       रेखा परिवार सहित जाने को खड़ी हो गयी, चमन बस खड़ा रह गया और रेखा बोली, रोकेगे नहीं मुझे, लाल आंखों से चमन ने उसकी तरफ देखा और लगभग फर्स पर बैठ सा गया, भर्रायी सी आवाज में बोला, कैसे रोकूं तुम्हें, तुम्हारे पिताजी की बात सही है बिल्कुल और मै कुछ भी कर नहीं पाया। रेखा की मां बोली, बहुत हुआ अब बन्द करो ये नाटक सारे लोग, बच्चे को बीमार करोगे क्या, कितने सख्त हो सारे लोग। बेटा परिक्षा में फेल हुये हो, जिन्दगी में नहीं और हां तुम्हारे वाले पेपर की तैयारी तुम्हें बिन बताये रेखा ने भी कि थी और ये सफल हो गयी है, हमें तो बेटा तुम दोनों की खुशी चाहिये बस, अब हम निश्चिंत हो तुम दोनों की शादी करा सकते हैं, क्योंकि तुम आत्मनिर्भर हो। बस यही देखना था तुम दोनों में कितना बालपन बाकी है अभी।
    चमन तो भौच्चक सा देखता रह गया। और हां, रेखा के पापा बोले, ये सब तुम्हारे मां-बाप को भी पता है, पिछले एक साल से हम सम्पर्क में हैं, मैं तुम्हारी तैयारी और त्याग के बारे में सब जानता हूं बेटा मगर रेखा ने चयन पाकर हम सबको वास्तव में चौंका दिया, क्योंकि खिलाड़ी के रूप में हम सब खेल तुम्हारा देख रहे थे और गोल रेखा कर गयी, मगर जीते तो दोनों ना, रेखा की मां बीच में टोकते हुये बोला और सब हस पड़े। शादी तो हो जायेगी बेटा, मगर तैयारी जारी रखो, रेखा के पापा ने आश्वासन दिया और वो मिठाई रेखा के चयन की है बेटा जी।
        चमन सबको दरवाजे तक छोड़ कर "सौदेबाज किस्मत" और "कर्म" में अन्तर कर रहा था, फिर किताब उठाई और लग गया तैयारी में।
स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

Monday, May 25, 2020

"बस दो कदम"

"बस दो कदम"

रहो साथ मेरे बस तुम जन्मों-जन्म,
हाथों में हाथ हो, मौसम भी सर्द गरम,
बहुत भागा-दौड़ी है हमारी जिन्दगी में
बैठों कुछ पल, चलते हैं साथ दो कदम....

कभी तुम्हारी चाय को याद करता हूं,
फिर

तन्हाई में शायरी करता हूं,


बेफिक्र सा मैं, फिक्र भी करता हूं,
लगती हो सच कभी, और कभी भ्रम
बहुत भागा-दौड़ी है हमारी जिन्दगी में
बैठों कुछ पल, चलते हैं साथ दो कदम....

खिलखिलाना तुम्हारा गूंजता है,
शैतानियों में मन झूमता है,
अतीत सारा नजरों में घूमता है,
मैं तो हूं बस यहां, मन वही है सनम
बहुत भागा-दौड़ी है हमारी जिन्दगी में
बैठों कुछ पल, चलते हैं साथ दो कदम....

मेरी ख्वाहाशों को जो तुम तवज्जो देती हो,
मेरे हर दुख को जो अपना समझ लेती हो,
माथे की शिकन से ही सब पढ़ लेती हो,
तुम हो जो पास"पवार" के, ईश्वर का है ये करम
बहुत भागा-दौड़ी है हमारी जिन्दगी में
बैठों कुछ पल, चलते हैं साथ दो कदम....

मेरी शायरी,कविताओं का आधार तुम हो,
नीरस सी जिन्गी की झंकार तुम हो,
मेरी तो बस चाहत और प्यार तुम हो,
तुम ही लेख मेरे, तुम ही मेरी नज्म
बहुत भागा-दौड़ी है हमारी जिन्दगी में
बैठों कुछ पल, चलते हैं साथ दो कदम....

स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

Sunday, May 24, 2020

"बचपन चला गया"

"बचपन चला गया"

   समय अपने हिसाब से ही विद्धान बनाता है और अपने हिसाब से ही समझदारी भी देता है, बाकी काम तो परिस्तिथियां कर देती हैं। बस तय आपको करना है कि कैसे और किससे क्या सीखना है...?
    तन्मय ८ साल का था और उस वक्त अचानक से समझदार हो गया जब मायके से लौटते वक्त एक दुर्घटना में उसकी मां की मृत्यु हो गयी। अपनी ३ साल की छोटी बहन पंक्ति को गोदी में लेकर बाबू जी से बोला कि पापा, "हम हैं ना, पंक्ति को सम्हाल लेगें।" बाबू जी ने दोनों बच्चों को गले लगाया और तन्मय की सकारात्मकता को भी स्वीकारा। कुछ दिनों बाद बाबू जी से दूसरी शादी के लिये भी लोग कहने लगे मगर बाबू जी राजी न हुये फिर भी दो बच्चे पालना और काम भी देखना बड़ा मुश्किल हो जाता है, तो दोनों को एक रिश्तेदार चाची के यहां भेज दिया गया।
     "पवार" के अनुसार बहुत कम लोग होते हैं, जो लम्बे समय तक इस तरह की मदद कर पाते हैं, वरना अक्सर झुंझलाहट बच्चों पर ही निकलती है। हुआ भी ये ही, तन्मय सारे काम भी करता, ताने भी सुनता और पंक्ति को अक्सर रोते भी देखता किन्तु वो अपनी मां के कारण बहुत समझदार था तो ये भी समझता था कि बाबू जी के विकल्प ही नहीं है कोई । बस सम्हाले हुआ था खुद को और पंक्ति को।
     उसका धैर्य उस दिन जबाब दे गया जब पंक्ति पर चाची ने हाथ उठा दिया और वो बिफर पड़ा। गुस्से में आंखें लाल करते हुये वो बोला, "देखो आपको जो कहना है, मुझे कहो, मेरी बहन से कुछ मत कहना" चाची ने एक थप्पड़ उसे भी लगा दिया। इत्तेफाकन तभी बाबू जी का घर में प्रवेश हुआ और तन्मय भाग के बाबू जी से चिपक गया और फूट पड़ा।
     पिताजी ने उसे सम्हाला और फिर रात भर समझाया और अपनी दिक्कतें भी गिनायी और वो बस सुनता रहा, ध्यान से। सुबह जब पिताजी वापस जाने वाले थे तो उन्होनें तन्मय की तरफ देखा और बोले, "चाची की बात मानना बेटा, लाली का भी ख्याल रखना, मैं जल्द आऊंगा और हां बच्चे हो तुम,बस ख्याल रखना।" तन्मय फटाक से रुआंसी आवाज में बोला, "हां रख लूंगा सबका ख्याल पर न तो ये मेरा बचपन है और न मैं बच्चा हूं, बचपन तो मां के साथ चला गया बाबू जी।"
      बाबू जी ने उसकी आंखों में एक अलग ही बच्चा देखा और बोल पड़े, "चल सामान उठा अपना और अपनी बहन का, हम ३ ही अब लड़ेगें।" चाची बोल पड़ी, "पर भाईसाहब।" बाबू जी ने अंगुली से चुप का इशारा किया और तन्मय दौड़ता हुआ कमरे में चला गया।
     बाबू जी को न जाने क्यूं कुछ लाईन याद आ गयी,
"ठोकरें खा के भी न सुधरे तो मुक्कद्दर राहगीर का,
राह के पत्थर तो अपना काम कर ही देते हैं।"
स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०


Saturday, May 23, 2020

"लागी तुझसे मन की प्रीत"

"लागी तुझसे मन की प्रीत"
      
        यादों और प्रीत में मेरे हिसाब से थोड़ा अन्तर होता है, यादें कैसी भी हो सकती हैं, अच्छी या बुरी, मगर प्रीत हमेशा सकारात्मक ही लगती है, एक दिली जुड़ाव का नाम है प्रीत और प्रीत कभी बदलती भी नहीं है। समय के साथ भी नहीं, बस जब कभी जुड़ाव प्रत्यक्ष आता है प्रीत उभर कर सामने आती है।
      बाबू एक समाज की नजर में एक बिगड़ैल लड़का है, और जैसे-जैसे जवानी के अंकुर उसमें फूटे, थोड़ा कमाने लगा तो हर बुरी आदत ने उसको जकड़ लिया। दारू सहित हर तरह की नशेबाजी आम सी हो गयी उसके लिये और ये सब रोज का सा था। हालांकि किशोर अवस्था के अन्त तक और जवानी कि पहली किश्त तक वो ऐसा नहीं था, बाद में वक्त बदला और वो बहकता गया।
      नशे में टुन्न बाबू एक पेड़ के नीचे बैठा था, तभी स्कूटी पर एक लड़का और लड़की, अरे बचो, सम्हलो, गिरा मत देना.... कहते हुये उसकी ओर आ रहे थे । शायद लड़की स्कूटी सीख रही थी। बाबू के बगल से वो लोग निकल गये और बाबू नियति की याद में ५ साल पीछे खो गया। कैसे गांव की एक शादी में उसकी मुलाकात नियति से हुई थी और खूब हंसी-टिठौली भी हुई थी। उसके बगल के गांव की लड़की थी नियति। भोली सी, मासूम सी जब भी बाबू को मिलती, दुनिया भर की बांते करती और बोलती तो बोलती ही चली जाती। बाबू एकटक उसे देखता रह जाता और सोचता की ये पल कभी खत्म न हो। 
     ये मिलना-मिलाना लगभग रोज का सा था, और दोनों खुश भी थे क्योंकि दोनों एक दूसरे को अन्त तक सुनते थे लेकिन सबकुछ हमेशा ठीक चले, ये कहां मुमकिन है। सूखे पत्तों में आग की तरह ये खबर दोनों गांव मे उड़ने लगी और जल्द ही दोनों के घरवालों को भी सूचित हो ही गया। नियति पर रोक लगाई गयी और एक वही पुराना ब्रम्हास्त्र नियति की शादी तय की गयी। इस सब की खबर बाबू को मिलती रहती थी मगर वो समझ चुका था उसके हाथ में कुछ नहीं है, नियति उसकी नियति में नहीं है। बस खुद को टूटता सा देख रहा था रोज, हौले-हौले।
     पवार के अनुसार, समय कैसा भी हो मगर आपको एक मौका तो मिलता ही है, पर गलत सही का फैसला भी आपको लेना है, परिणाम भी सोचने होतें हैं। बाबू के साथ भी ऐसा हुआ । नियति की एक सहेली बाबू से मिली और बताया कल नियति आपसे मिलेगी, कुछ जरूरी बात करनी है। तैयार रहना। आंखों में चमक लिये निश्चित स्थान पर बाबू पहुंचा तो नियति उससे गले लग रो पड़ी और बोली कि मुझे नहीं करनी ये शादी, बाबू, मुझे यहां से ले चलो, हम कैसे भी रह लेंगें। मैं हर परिस्तिथी का सामना कर लुंगी बस तुम साथ हो, नियति बस बोले जा रही थी। बाबू ने उसको खुद से अलग किया और बोला, "नियति ये सम्भव नहीं हैं,हम कहां जायेंगें अपने लोंगों से भाग कर, मैं अभी इस स्तिथी में नहीं हू कि हम खुद को सम्हाल सकें।" नियति बीच में ही बोली,"तो क्या हुआ, मैं नहीं जानती कुछ, कुछ भी करो, मुझे ले चलो बस"। बाबू ने फिर कोशिश की, यार समझो, परिवार वालों का क्या होगा, वो गांव में भी नहीं रह पायेंगें।" और "तुम तो सब समझ गये हो, है ना, मैं सब समझ चुकी हूं, तुम डरपोक हो, कभी जिन्दगी में गंभीर नही हुये, कभी मेरे लिये नहीं लडे, मैं ही पागल हूं जो बेताहशा भाग रही हूं तुम्हारे पीछे। सीधे शब्दों में कहूं, कायर हो तुम, कुछ नहीं कर पाओगे जिन्दगी में कभी।" ज्वालामुखी सी फूट पड़ी थी नियति। बाबू बस सुनता रहा और नियति को जाते देखता रह गया।
      दिन गुजरे और नियति चली गयी, बाबू को कभी कभी लगता कि उस दिन कुछ फैसला ले लेता तो समय कुछ और होता मगर शायद ये ही सब होना था और फिर नियति के बाद जो वो टूटा तो आज तक नहीं सम्हला। समस्यायें और भी बहुत हैं बाबू की जिन्दगी में, मगर इस हालत की जिम्मेदार जड़ वही अलगाव था। लगातार और बेहिसाब पीने से बाबू की हालत भी खराब रहती थी, मगर वो बस जैसे खुद को सजा देने पर तुला हुआ था।
   आज एक पुराने दोस्त की शादी थी, बारात कहीं दूसरे किसी गांव में जा रही थी, बाबू इस सब से दूर रहता था मगर दोस्त के आग्रह को मना न कर सका, और जब बारात गांव पहुची तो दरवाजे पर एक बच्चा गोदी में सुन्दर काया सी लिये नियति खड़ी थी, वो एकदम से उसे पहचान गया, मगर छिप गया। रात को दारु पार्टी हुई तो बाबू दो बोतल लिये तन्हाई की तलाश में निकल गया और सुकूं से बैठ कर पी ही रहा था कि पीछे से एक आहट सी सुनाई दी तुरन्त बोला, "आ गयी तुम?" नियति बोली आज भी मेरी आहट पहचान लेते हो। बाबू बिना देखे बोला, "मोहोब्बत नहीं, प्रीत जुड़ी है तुमसे, "तुझसे प्रीत पुरानी बिसरी।" बस आ ही जाती हो तुम हर बार, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष।"
    नियति अब तक सामने आ चुकी थी और उसके चेहरे की तरफ गौर से देखते हुये बोली, "अब लगता है मुझे कि मैं सही गयी थी, उस दिन। अगर न जाती तो तुम्हारे साथ तो जीवन नरक हो जाता। तुम्हारे बारे में पता चलता रहता था मुझे और आज देख के सब यकीं हो गया, कि मेरा फैसला सही था।" बाबू बोला," तो यहां ये बताने आयी हो तुम मुझे?" नहीं, मैं बस ये देखने आयी हूं कि अब भी कायर ही हो या कुछ बदल गया है।" बाबू बोला," अब तुम जाओ यहां से, कोई देख लेगा तो सही नही लगेगा।" देखा,देखा तुम आज भी डरपोक हो, यही कह रही थी मैं, नियति कंधें उचकाते हुये बोली और पीछे मुड़ गयी। बाबू ने एक बार फिर उसे देखा और अपनी बोतल खोल के बोला,
हमने की न परवाह कभी जमाने की रीत की,
न बात की अपनी कभी हार और जीत की,
तुम कायर, डरपोक, नकारा कहती रही हमेशा....
हमें तो तिश्नगी रही बस तुमसे प्रीत की.....

स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

Friday, May 22, 2020

"जिज्ञासा और जीवन"

"जिज्ञासा और जीवन"
     जिज्ञासा ही जीवन के जुझारूपन की जड़ है, और अगर जिज्ञासा ही न रहे तो जीवन निरर्थक और बोझिल सा हो जाता है इसलिये हमेशा जिज्ञासु बने रहिये और जानते-सीखते रहिये आस-पास के माहौल और लोगों से। जीवन में मजा भी आयेगा और नवीनता भी बनी रहेगी।
      मधु पैंतीस वर्षीय एक कामकाजी महिला है और हमेशा से जिज्ञासु प्रवृत्ति की रही है तो आज एक निश्चित मुकाम पर भी है, वह एक बड़ी नामी कम्पनी में नौकरी करती है और अच्छा वेतन पाती है। मतलब सबकुत ठीक और लाजबाब चल रहा है। इस कम्पनी में उसे काम करते हुये ४ चार हो गये और कम्पनी को मधु ने काफी मेहनत से एक सफल कम्पनी में बदला है इसलिये उसके मालिक उसे सिर्फ कर्मचारी नहीं कम्पनी का मजबूत स्तम्भ मानते हैं।
     कम्पनी में विशाल नाम का एक युवक भी है, जो बहुत मेहनती और बढि़या दिखने वाला है। ये एम.बी.ए. पास युवा २ साल से कम्पनी में है और इसके उपाय और तरीके नायाब होते हैं, मधु कई बार विशाल के त्वरित निर्णय लेने की क्षमता से प्रभावित हुई है। कभी-कभी मधु को लगा है कि विशाल सिर्फ उसे बास की तरह ही नहीं देखता, उसकी आंखें और भी कुछ कहना चाहती हैं, मगर फिर वह अक्सर चुप रह जाता है।
       पवार की ये कहानी थोड़ी बड़ी हो सकती है, मगर धैर्य से पढ़ियेगा। एक दिन लंच में जब मधु आफिस की छत पर थी तो वही विशाल आयख और बोला देखो, मधु आप मुझसे उम्र और ओहदे दोनों में बड़ी हो, अनुभवी हो और एक सफल महिला हो, खैर इन सब बातों को अगर छोड़ भी दूं तो व्यक्तिगत रूप से आप मुझे बहुत पसन्द हो, मैं बस ये बताना चाहता हूं कि मैं आपसे लगाव रखता हू और काफी हिम्मत कर ये सब कह रहा हू, तो आपके दिल में अगर कुछ भावनायें हो मेरे लिये तो बता दीजियेगा और सोच समझ के जबाब दीजियेगा, मैं इन्तजार करूंगा। और हां, इससे हमारे काम पर कोई फर्क नहीं पढेगा।
   विशाल चला गया, और मधु अतीत में खो गयी। कैसे बचपन से उसने संघर्ष की है और किसी ने कभी उससे प्यार तो दूर सहानुभूति भी नहीं रखी। पिता का देहान्त जब वो ८ साल की थी तभी हो गया था,  उसका और उसके छोटे भाई का लालन-पालन मां ने बड़ी मस्सक्कत और मेहनत से किया था। जैसे-जैसे वो समझदार हुई, अपनी जिम्मेदारियां भी सम्हालती गयी, और टोकरें खाती हुई और समाज से तौर-तरिके सीखते हुये अपने छोटे भाई का भविष्य भी सम्हाला और अपना भी। बाद में छोटा भाई प्रेम-विवाह कर अलग हो गया। कभी-कभी फोन कर लेता है। अब घर में मां और मधु ही रहते हैं। मां अक्सर कहती है कि तू शादी कर ले, बहुत देर हो गयी है वैसे भी। मगर मधु को तो ये रिश्ते जैसे क्षणिक लगते है। एक लम्बा अर्शा जो उसने इस निर्मोही समाज से लड़कर जिया है, तो विश्वाव ज्यादा उसको किसी पर रहा ही नहीं है।
      मगर विशाल के बारे में उसे सोचना चाहिये, उसने अपने मन से कहा। मगर अन्दर से आवाज आयी वो तुझसे ०३ साल छोटा है, कम्पनी में भी कम ओहदे पर है और भी बहुत कुछ। समाज क्या कहेगा? फिर खुद बोली, समाज तो कुछ न कुछ कहता ही है हमेशा इसलिये कल जरूर विशाल से बात करेगी और मन की बात कह देगी। अगले दिन वो इन्तजार करती रही मगर विशाल आफिस नहीं आया और उसका नम्बर भी नहीं लगा। अगले २-३ दिन भी विशाल नहीं आया तो मधु ने उसके साथ के लोगों से पता करने को बोला।
      २ दिन बाद चेतन जो विशाल का दोस्त था, उसने मधु को बताया कि विशाल तो गांव में है और अब नहीं आ पायेगा। मधु चौंकते हुये बोली क्यूं क्या हुआ, चेतन बोला, अरे उसकी शादी हो गयी, गांव में एक लड़की से ये प्यार करता था और फिर शहर आ गया था, बीच-बीच में गांव जाता रहता था और अब उससे शादी की मना करता था, तो उस लड़की ने बात घर बता दी, पंचायत बैठी और फैसला हूआ, इसको शादी करनी होगी। बहाने से बुलाया गया और शादी कर दी गयी।
एक सांस में चेतन ये सब बोल गया।
      मधु फिर सोचने लगी, जिन्दगी जाने क्या चाहती है मुझसे। जब भी लगाव सा हुआ है, उस शक्स को अलग ही कर दिया है। तभी जीवन को सिर्फ अपने लिये और अपनी मां के लिये जीने का फैसला किया और बाल सम्हालते हुये काम में लग गयी, दिमाग में चल रहा था, पता नहीं ये सोच "अंत है या आरम्भ"
स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

"दो कप चाय"

"दो कप चाय"

हो मुनासिब तो साथ मेरे जी लेना,
होके तैयार फिर जख्मों को सीं लेना,
न नजर आये कोई जब अपना सा
आना बेझिझक मेरे पास,
और दो कप चाय पी लेना....

चाय नहीं ये वक्त गुजारने का तरीका है,
अपनों से अपनी कहने का मौका है,
मेरा नहीं, तेरा नहीं हक इस पर सबका है,
जायका चाहो जब इसका कभी लेना
आना बेझिझक मेरे पास,
और दो कप चाय पी लेना....

कलयुग का सोमरस समझो इसे,
भौतिकता में रसायन मानों इसे,
सर्वश्रेष्ट मसालों का मिश्रण जानों इसे,
चाहो लबों पर जब इसकी नमी लेना
आना बेझिझक मेरे पास,
और दो कप चाय पी लेना....

साथ इसके साथी बहुत हैं,
बिस्कुट,नमकीन,पापे सब इसमें घुलित हैं,
चीनी, पत्ती, दूध सब इसमें निहित हैं,
जगह न इसकी कोई ले सका,
चाहे कितना भी पी घी लेना
फिर आना बेझिझक मेरे पास,
और दो कप चाय पी लेना....

ताजगी की घोतक यही है,
सर्द रातों की सच्ची ज्योत यही है,
पवार के तो दिन का आधार स्त्रोत यही है,
तुम भी भटको मत, ज्ञान सही लेना
और
आना बेझिझक मेरे पास,
और दो कप चाय पी लेना....

स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

Sunday, May 17, 2020

"चंदा"

"चंदा"
       वो भी क्या वक्त था, जब बाबा शाम को ७ बजे तक घर आ जाते थे और मैं भाग के बाबा से लिपट जाती। बाबा के कपडे़ पसीने और मिट्ठी से तर होते थे पर हमें तो बाबा साफ तभी मिले जब सुबह पास के हैण्डपम्प पर नहा कर आते थे। २ रोटी खाके और २ रोटी ले जाते थे पिन्नी में और कभी कभी अंगोछें में बांध के..... कितने खुश थे हम।
      मां अगल बगल के घरों में काम करती और मेरी वजह से जल्दी ही आ जाती। अरे मैं बताना भूल गयी मेरा नाम चंदा है और मैं चौथी में पढ़ती हूं। बाबा मजदूरी करते हैं, मां के बारे में अभी बताया तो था। हम न बहुत से लोग एक खाली प्लाट में तिरपाल डाल के रहते हैं। मुझे यहीं अच्छा लगता है, बडा घर तो एक दो बार मां के साथ गयी थी तभी देखा था, मालकिन ने मुझे अन्दर नहीं जाने दिया था, तो बस थोडा सा देखा था। बाबा बताते हैं इस कालौनी के ज्यादातर घर बाबा और हमारे साथ वालों ने ही बनाये हैं। बड़े बड़े घर और बड़े बड़े लोग। इत्ते बड़े की इन्हें मुझमें देवी बस नवदुर्गा में दिखती है और बाबा की भूख तब जब इनके घर पर कोई काम होता है।
     बाबा बताते हैं हम लोग यहां काफी समय से रह रहे हैं, ये कालोनी वालों की कृपा है या प्लाट वाले की मुझे नहीं पता। मैं तो स्कूल जाती हूं, फिर सो जाती हूं और शाम को खूब खेलती हूं, फिर मां आ जाती है और वो खाना बनाती है। फिर हम बाबा की राह तकते हैं। कितना बढिया था सबकुछ। फिर एक दिन बगल वाले छज्जू काका की तबियत खराब हो गयी, बूढे तो थे ही तो रात भर में हालत और बिगड़ी और छज्जू काका को पता नहीं सुबह क्या हो गया। सब घेरे खडे़ थे, बड़े लोग घरों की छतों पर थे, वहीं से गुस्से में कुछ कह रहे थे। मां बाबा और सारे लोगों की आंखों में आसूं थे।
    छज्जू काका फिर नहीं दिखे, पता नहीं कहां चले गये। मगर बाबा भी अब काम पर नहीं जाते, मां बाबा जाने क्या बात करते रहते हैं। कालोनी वाले भी आये थे एक बार, गुस्से में बाबा से बात की बहुत। बाबा और सारे लोगों ने अपना सामान इकट्ठा कर लिया है, पता नहीं क्यूं। सब परेशान है कुछ। बाबा आज रात उन मकानों को देखते रहे।
और सवेरे से हम लोग निकल आये।
मुझे नहीं पता, हम कहां जा रहे है पर मुझे ये पता है, मेरे बाबा कहीं भी जाये कुछ न कुछ करते ही हैं। बाबा मजदूर हैं ना..... और मजबूर भी।
स्वरचित व निजी विचार
सुमित सिंह पवार
उ०प्र०पु०

Saturday, May 16, 2020

माहौल भोर का....

#माहौल_भोर_का....

इकटक नजर,
और माहौल भोर का....
दिमागी शान्ती,
न टंटा किसी शोर का....
देखता हूं जहां तक,
सोच ही दिखती है,
अब ये वक्त मेरा है,
न किसी और का....
सागर गहरा है,
बहुत खुदी का,
न पता किसी ओर-छोर का....
खुद को सम्हालने की इस स्तिथी में,
झटका न लगे बस जोर का.....
बनाये रखो दूरी कुछ,
पर मन से जुड़े रहो,
जैसे रिश्ता हो,
पतंग और डोर का.....
है हिदायत तो जिन्दगी है,
है शिकायत तो सुधारगी है,
बस मानते रहो,
बढ़ते रहो,
न लाओ उर में कठोरता....
बीत जायेगा,
समय ये भी हौले हौले,
बस धैर्य रख,
और बढ़ता चल,
बचाव की चादर ओढ़ता....
देख गौर से,
बहुत कुछ सीखाता है,
ये माहौल भोर का......
स्वरचित
सुमित सिंह पवार
उ०प्र०पु०

अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी

अब_भी_जीवन_को_न_समझे_तो_विद्धुता_कैसी.....

न विचलित हो मन तो मानवता कैसी,
दर्द तक न पहुंच सको तो मोहोब्बत कैसी,
दिक्कत आंखों से न समझों तो चाहत कैसी,
बहुत ज्ञानता बखान ली
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

जिनके बिना छत नहीं है तुम्हारी,
न कार्यालय, न सड़क है तुम्हारी,
न शहर, न सफाई है तुम्हारी,
उनके बजूद को अब भी न स्वीकारा
तो चपलता कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

न समाज, न नर है, न नरायन इनका,
न जाने किस विधा पर होता है चयन इनका,
सबको महत्वहीन लगता पलायन इनका,
कोई इनके लिये न आगे आया, जाने ये सोच कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

कोई कहता विमारी के वाहक हैं ये,
कोई कहता बस इसी के लायक हैं ये,
असल में तुम्हारे समाज की उन्नति में सहायक हैं ये,
आज इनके अस्तित्व के निर्णय की पहचान कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

भटक रहे हैं मीलों उस देश में जो इनका हैं,
न आंखों में चमक, न बच्चों के पेट में तिनका है,
कौन इन्हें समझाये, कि कसूर किसका है,
दिल अब भी व्यथित न हुआ तो सम्पूर्णता कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

जबाब न मेरे पास है, न आपके,
जीवन जी रहे हैं ये, सांसे नाप के,
पैर नहीं, जिन्दगी टोकर खा रही सड़क पे,
ईश्वर अब अगर तू न पिघला तो तेरी दयालुता कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

स्वरचित
निजी विचार
सुमित सिंह पवार
उ०प्र०पु०

Tuesday, April 14, 2020

और_कैसे_समझायें_तुम्हें_भगवान

#और_कैसे_समझायें_तुम्हें_भगवान...

डण्डा,आले सब सम्हालें हैं श्रीमान्,
देश को बना चुके अपनी आन,
कर रहे हैं उत्कृष्ट प्रदर्शन संग जी-जान,
अब तो व्याकुलता को समझों प्यारे
और कैसे समझायें तुम्हें,भगवान.....

इलाज करते बिना किसी भेद-भाव,
खडे़ रहते तुम्हारे लिये दिन-रात,
मेहनत से लाना चाहते जो एक स्वस्थ प्रभात,
क्यों दिक्कतों को उनकी बढ़ाते हो, नादान
अब तो व्याकुलता को समझों प्यारे
और कैसे समझायें तुम्हें,भगवान.....

चौराहों को जो घेरे निस्वार्थ खड़े हैं,
निरन्तर गली-कूचों में गस्त लगाये ह
पड़े हैं,
आपके लिये, आपको छुपाये हुयें हैं,
कुछ तो समझ, किस तरफ है समय का रूझान,
अब तो व्याकुलता को समझों प्यारे
और कैसे समझायें तुम्हें,भगवान.....

सफाई आपकी लगातार जो कर रहें हैं,
फर्ज के लिये, जो जान की परवाह नहीं कर रहें हैं,
देश की जो असली सेवा कर रहें हैं,
उनकी सेवा को मत कर बेजान,
अब तो व्याकुलता को समझों प्यारे
और कैसे समझायें तुम्हें,भगवान.....

बैंक जो सुविधा में आपकी खुली हुयी हैं,
लेखा-झोखा जो आपका सम्हाले हुयी हैं,
अर्थव्यवस्था को जो सीने से लगायी हुयी हैं,
करो उनके परित्याग का भी सम्मान,
अब तो व्याकुलता को समझों प्यारे
और कैसे समझायें तुम्हें,भगवान.....

कर लेना मनकी, आज बस घर में रुक लो,
इच्छा कर लेना सब पूरी, अभी मानसिक रूप से जुड़ लो,
सफर में और भी मजा आयेगा, बस ये युद्ध पूरे मन से लड़ लो,
देखना फिर भारत की गौरवमयी मुस्कान,
अब तो व्याकुलता को समझों प्यारे
और कैसे समझायें तुम्हें,भगवान.....
 स्वरचित
निजी विचार
सुमित सिंह पवार
उ०प्र०पु०
चित्र संकलन- whatsup

Saturday, January 4, 2020

"इशारों की ठण्ड"

"इशारों की ठण्ड"
        अरे ये लड़की कभी मेरी सुनती ही नहीं.... कह कर रमा अपनी आठ साल की बेटी की ओर गुस्से से घूर रही थी और गुँजन(बेटी) दीवार से पीठ लगाये सहमी सी खडी़ थी। तभी अनिल बोला क्यूँ डाँट रही हो सुबह सुबह उसे, अब क्या कर दिया उसने?
करती ही तो नहीं है ये कुछ, रमा ने ताने रुपी बाण मारा। अनिल बोला, "तो 8 साल की बच्ची से क्या कराना है तुम्हें? रमा बोली," अरे कब से कह रही हूँ कि ये कूडादान बाहर खाली कर आ, मगर ये सुनती ही नहीं है। अनिल ने आँख से इशारा किया और गुँजन को गल्ती का एहसास हुआ तो वो कूडे़दान को लेकर बाहर दौड़ पडी़, मानो अब यही मम्मी के कहर से बचा सकता है। अनिल मुस्कुराते हुये बोला कि देखा, "कितनी, समझदार बिटिया है, सब इशारों में समझ जाती है। हाँ तुम्हारे ही तो इशारे समझती है ये, रमा कमर में साडी़ खोसते हुये रसोई की तरफ बढ़ गयी।
         गुँजन अब तक कूडा़ बाहर खाली कर के आ चुकी थी। अनिल बाथरूम में लगभग चीख पडा़,"यार रमा मरवाओगी क्या,"बोला था, गीजर आन कर देना, एक मग्गे ठण्डे पानी में साँस गले तक आ गयी है।" रमा ने एक नजर गुस्से की अनिल की ओर डाली। दिसम्बर के लास्ट में ये पानी तो जानलेवा हो जाता है, अनिल बड़बडा़ता रहा और नहाने लगा तभी बाहर से किसी के चिल्लाने की आवाज आयी,"अरे रमा,हमारे घर को क्या सरकारी कूडे़दान समझ रखा है,जो नजर बचते ही कूडा़ यहाँ फेंक देती हो। रमा घबरायी सी बाहर निकली तो बाहर का नजारा देखकर माथा पीठ लिया।
           गुँजन ने सारा कूडा़ सामने वाली निर्मला आँटी के दरवाजे पर डाल दिया था और निर्मला आँटी को आप मोहल्ले का लडा़कू विमान समझिये, उन्हें बस मौका चाहिये होता था। मगर गुँजन की भी क्या गल्ती, मम्मी ने बाहर कूडा डालने को बोला था, सो डाल दिया। अब तक निर्मला आँटी पूरा माहौल बना चुकी थी और रमा को देखते ही बात कूडे़ से सुरू होकर गडे़ मुर्दे उखाडने पर चलने लगी। रमा तो अपने घर में शहंशाह थी, बाहर तो शान्त महिला थी। वो बस आँटी-आँटी कह के लगी हुई थी और निर्मला आँटी पूरा मोहोल्ला इकट्ठा किये हुई थी, भई सबूत जो घर के सामने ही था।
        गुँजन बालकनी में खडी़ ये सब समझने की जद्दोजहद में थी। शोर-शराबा सुन अनिल भी जल्दी-जल्दी नहा के बाहर आया और मामले को समझा तो तुरन्त  बच्ची की गल्ती पर निर्मला आँटी से माफी माँगी और बोला रमा इसे साफ कर दो और गुँजन को तो आज मैं बताता हूँ फिर बालकनी में खडी़ गुँजन को आँख बडी़ कर के घूर के देखा। गुँजन अन्दर भाग गई। रमा भी झाडू लेकर सफाई में लग गयी और निर्मला आँटी को अपनी विजय का और मोहल्ले में धाक जमने का गुरुर हुआ और बोली,"चलो, कोई नहीं बच्चे तो गल्ती करते ही हैं। कूडा साफ हो चुका था और रमा भी अनिल की तरफ बढी शायद (इशारों में) सबकुछ सम्हालने के लिये धन्यबाद बोला। 
         दोनों अन्दर घुसे ही थे के बाहर से छपाक की आवाज आयी और दोनों ने बाहर देखा तो आँखें बाहर आ गयी। निर्मला आँटी भीगी हुई ठण्ड में खडी़ थी और ऊपर गुँजन एक मग्गा लिये। अनिल-रमा ने फटाक से गेट बन्द किया और अन्दर भागे। निर्मला आँटी अभी होश में नहीं है। रमा बोली,"आपकी बिटिया तो सारे इशारे समझती है ना? और अनिल सोच रहा था गुँजन ने किस इशारे का ये मतलब निकाला होगा।

भीषण ठण्ड त्रासदी को देखते हुये मेरी व्यग्यांत्मक स्वरचित रचना।
सुमित सिंह पवार
उ0प्र0पु0