Wednesday, June 10, 2020

"हीटर और ऐलीमेंट"

     "हीटर और ऐलीमेंट"

           कहानियों का क्या है, कहानी तो बनती रहती हैं, अच्छी-बुरी, लघु-दीर्घ, मनमोहक-हृदय विधारक। जिन्दगी के हर मोड़ पर एक कहानी तैयार होती है, बस जरूरत है पात्रों और घटनाओं को संजोनें और समझने की और ऐसी ही एक कहानी है, हीटर और एलीमेंट  की। ये कहानी हीटर की तरफ से है।

            मैं(हीटर) जब निर्मित हुआ तो दो-तीन तरह की मिट्टी मिलायी गयी और फिर पकाया गया, उससे काफी मजबूत हो गया मैं और फिर मुझमें चीनी मिट्टी का एक सोकेट फिट किया गया, जिससे उसमें तार जोड़े जा सके, और मुझमें विद्युत बह सके। ऐसे मेरा ८०प्रतिशत शरीर तैयार हो चुका था मगर आत्मा का आना बाकी था अभी और फिर पीली सी पिन्नी में गोल-गोल वो बैठी थी, पैक बिल्कुल। वो आयी और मुझमें समा गयी। बलयाकार उसका शरीर, मेरे शरीर में ऐसे समा गया कि जैसे मेरा निर्माण उसके लिये हुआ हो और वो सिर्फ मेरी ही हो।

           बिजली के तार जोड़ दिये गये और वो सुर्ख लाल चमक उठी, उसका अंग-अंग मेरे शरीर में चमक रहा था, मुझमें दहक रहा था और मैं बस अपने आपको उसके मुझमें समाहित होने से निर्जीव से सजीव महसूस कर रहा था। मालिक ने मेरे ऊपर एक चायदान रखा, उसमें थोड़ा पानी था। हम दोनों ने मिलकर उसे पकाया, चाय बनी और मालिक को हमारे जिस्म की गर्मी का एहसास हुआ। ये रोज का सा हो गया था अब, वो मुझमें समायी रहती और जैसे ही कोई बटन दबाता, वो मुझमें जान ले आती। कितनी सब्जीयां, कितनी दालें, पनीर, रोटियां और न जाने क्या-क्या हम दोनों ने साथ बनाये।
        हम दोनों की जोड़ी लाजबाब थी। मैं तो बड़ा खुश रहता था। फिर एक दिन कुछ शॉर्ट-सर्किट सा हुआ और वो धीरे से बन्द हो गयी, जैसे लगातार काम करने की वजह से बिमार हो गयी हो। मालिक ने पेचकस से कुछ दवाई दी और वो फिर होश में आयी। हम दोनों ने फिर से काम प्रारम्भ कर दिया मगर अब उसमें पहले जैसा तेज नहीं बचा था। एक दिन वो टूट गयी बीच से, जैसे आंदोलन पर हो, "मुझसे नहीं होता अब ये काम।" मगर मालिक भी पक्का जुगाड़ु, उसको फिर जोड़ दिया गया। हम फिर काम पर लगे, मैंनें भी उसे समझाया, "कि क्या फायदा, काम पर ध्यान दो।" वो आंखें में थोड़ी सी लालिमा लाये बोली, "प्रिये तेरी मेरी कहानी यहीं तक थी, अब मेरा सफर खत्म होता है, चलती हूं मैं।" मैं पूछता रह गया, "कहां जा रही हो?"और वो इस बार २-३ टुकड़ों में टूट गयी, यही अंत था उसका शायद। उसके काले पड़े ठण्डे शरीर को मैंनें काफी वक्त खुद में रखा। काली इसलिये भी हो गयी थी वो क्योंकि कभी-कभी उस पर दूध-दाल आदि फैल जाता था, मालिक की गल्ती से और अपनी इस कुरूपता का बदला भी वो कभी सब्जी जला के या मालिक को हल्का-फुल्का करेंट लगा के ले लेती थी।
       खैर मालिक आया और उसने अपने झोले से वही पीली पिन्नी फिर से निकाली और मेरी दूसरी शादी कर दी गयी। ये तो पहले वाली से भी जादा तेज के साथ आयी थी और हम लोग फिर से काम में लग गये।
स्वरचित✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

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