Tuesday, June 9, 2020

"अनुकूलन"

    "अनुकूलन"

         समय कभी-कभी परिस्तिथियों को ऐसे बनाता है कि आप चाह कर भी उनसे बच नहीं सकते, आपको खुद को बदलकर या स्तिथी का सामना करके उसके अनुकूल बनना ही होता है। मेरे ख्याल से यही संसार का नियम भी है, जो बदलाव नहीं स्वीकारता या अनुकूलन नहीं अपनाता वो हौले हौले मिट जाता है।
         घर पर बैठी सुधा अपनी ही मां के ताने सुन रही थी, इसी की गल्ती होगी,ये ही सब नाटक करती है, हमेशा इसी ने नाक में दम किया... वो बस सुन रही थी और अतीत में खो गयी। तीन भाई बहनों में वो सबसे छोटी है, दो बड़े भाई थे, तो हमेशा ही वो कैद और बंधन में‌ रही। उसने भी वैसे ये सब अपनी नियति सी मान लिया था। जैसा बाबा ,मां या भाई बताते, करती रहती। उसके ना कोई सपने थे और कोई इच्छा ही थी खुद के लिये। कम बोलने वाली, खुद में रहने वाली और बस अपने काम से काम रखने वाली ऐसी लड़की बन गयी थी वो।
         पढ़ने में भी ठीक ठाक थी। बड़ा भाई कालेज छोड़ने-लेने जाता, तो छोटा भाई ट्यूशन तक जाता, शाम को पिताजी भी उससे पढ़ाई के बारे में जरूर पूछते। उसकी कोई घनिष्ट सहेली भी नहीं थी, क्योंकि दोस्ती वक्त मांगती है और वक्त उसके पास था ही नहीं। ९क्लास में आयी तो किसी ने उससे नहीं पूछा कि उसको कौन से विषय लेने हैं या क्या पढ़ना है,बनना है। बस बड़े भाई ने अपने हिसाब से फार्म भर दिया और उसने स्वीकार लिया। ये हमेशा का ही था वैसे भी। इस दौरान कई लव शावक उसके पीछे रहे और वो समझ भी जाती मगर वो थी ही इतनी निष्कीर्य की वो सब खुद ही अपना रास्ता नाप लेते।
       बारहवीं के बाद कॉलेज बाबा ने बता दिया और प्रवेश दिला दिया गया। रोज छोटा भाई छोड़ आता और वही लेकर आ जाता। सुविधा के लिये उसको एक छोटा फोन दिलवा दिया गया था, जिससे वो बहुत कम ही लगाव रखती, बस अपनी स्तिथी बता देती, कि इतने बजे क्लासेस खत्म होंगी। उसने अब तक सब कुछ अपनी नियति और घरवालों पर छोड़ रखा था,उनहीं के अनुकूल थी वो। तभी मंयक ने एक दिन उसको प्रपोज कर दिया, पसन्द तो वो भी मंयक को करती थी मगर वो तटस्थ रही है हमेशा। मिल जाये तो ठीक, न मिले तो ठीक।
       उसने मना कर दिया और बस इतना बोली,मंयक मैं ये सब वाली नहीं हूं, तुम भी अपना समय मेरे लिये बर्बाद न करो, कहीं और सोचो। और चल दी। ये बात करते हुये छोटे भाई ने देख लिया और उसने बाबा को बता दिया। बाबा ने दुगुनी गति से लड़का ढ़ूढ दिया और तय कर दी गयी शादी। हमेशा की तरह सुधा को सब स्वीकार था। शादी के बाद ससुराल पहुंची तो एक माह में ही सास-ननद ने हर तरह से कोस कोस कर उसका बुरा हाल कर दिया।
    वो तो लगभग धैर्य की देवी थी ही, इसे ही उसका घमण्ड समझा गया, कि ये जादा बोलती नहीं है, सीखना नहीं चाहती कुछ भी, बात नहीं करती और तो और कुछ भी कहते रहो जबाब नहीं देती। उन लोगों को क्या पता, जब आपने पौधे के चारों तरफ जाल लगा ही दिया है तो वो तो सीधा बढ़ेगा ही, अब जाल हटा भी दो तो क्या फायदा उसे ऐसे ही रहने में मजा जो आने लगा और आज उसका पति उसे घर छोड़ गया, ये कहते हुये कि इस पत्थर की मूरत को आप रखिये, रोबोट सा बना दिया है बिल्कुल। जब घर में सब ठीक हो जायेगा, ले जाऊंगा मैं।
        मां अभी भी बड़बड़ा रही थी और सुधा को पता ही नहीं था कि उसका अपराधी कौन है, घरवाले, समय या वो खुद।
स्वरचित✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०


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