Saturday, May 23, 2020

"लागी तुझसे मन की प्रीत"

"लागी तुझसे मन की प्रीत"
      
        यादों और प्रीत में मेरे हिसाब से थोड़ा अन्तर होता है, यादें कैसी भी हो सकती हैं, अच्छी या बुरी, मगर प्रीत हमेशा सकारात्मक ही लगती है, एक दिली जुड़ाव का नाम है प्रीत और प्रीत कभी बदलती भी नहीं है। समय के साथ भी नहीं, बस जब कभी जुड़ाव प्रत्यक्ष आता है प्रीत उभर कर सामने आती है।
      बाबू एक समाज की नजर में एक बिगड़ैल लड़का है, और जैसे-जैसे जवानी के अंकुर उसमें फूटे, थोड़ा कमाने लगा तो हर बुरी आदत ने उसको जकड़ लिया। दारू सहित हर तरह की नशेबाजी आम सी हो गयी उसके लिये और ये सब रोज का सा था। हालांकि किशोर अवस्था के अन्त तक और जवानी कि पहली किश्त तक वो ऐसा नहीं था, बाद में वक्त बदला और वो बहकता गया।
      नशे में टुन्न बाबू एक पेड़ के नीचे बैठा था, तभी स्कूटी पर एक लड़का और लड़की, अरे बचो, सम्हलो, गिरा मत देना.... कहते हुये उसकी ओर आ रहे थे । शायद लड़की स्कूटी सीख रही थी। बाबू के बगल से वो लोग निकल गये और बाबू नियति की याद में ५ साल पीछे खो गया। कैसे गांव की एक शादी में उसकी मुलाकात नियति से हुई थी और खूब हंसी-टिठौली भी हुई थी। उसके बगल के गांव की लड़की थी नियति। भोली सी, मासूम सी जब भी बाबू को मिलती, दुनिया भर की बांते करती और बोलती तो बोलती ही चली जाती। बाबू एकटक उसे देखता रह जाता और सोचता की ये पल कभी खत्म न हो। 
     ये मिलना-मिलाना लगभग रोज का सा था, और दोनों खुश भी थे क्योंकि दोनों एक दूसरे को अन्त तक सुनते थे लेकिन सबकुछ हमेशा ठीक चले, ये कहां मुमकिन है। सूखे पत्तों में आग की तरह ये खबर दोनों गांव मे उड़ने लगी और जल्द ही दोनों के घरवालों को भी सूचित हो ही गया। नियति पर रोक लगाई गयी और एक वही पुराना ब्रम्हास्त्र नियति की शादी तय की गयी। इस सब की खबर बाबू को मिलती रहती थी मगर वो समझ चुका था उसके हाथ में कुछ नहीं है, नियति उसकी नियति में नहीं है। बस खुद को टूटता सा देख रहा था रोज, हौले-हौले।
     पवार के अनुसार, समय कैसा भी हो मगर आपको एक मौका तो मिलता ही है, पर गलत सही का फैसला भी आपको लेना है, परिणाम भी सोचने होतें हैं। बाबू के साथ भी ऐसा हुआ । नियति की एक सहेली बाबू से मिली और बताया कल नियति आपसे मिलेगी, कुछ जरूरी बात करनी है। तैयार रहना। आंखों में चमक लिये निश्चित स्थान पर बाबू पहुंचा तो नियति उससे गले लग रो पड़ी और बोली कि मुझे नहीं करनी ये शादी, बाबू, मुझे यहां से ले चलो, हम कैसे भी रह लेंगें। मैं हर परिस्तिथी का सामना कर लुंगी बस तुम साथ हो, नियति बस बोले जा रही थी। बाबू ने उसको खुद से अलग किया और बोला, "नियति ये सम्भव नहीं हैं,हम कहां जायेंगें अपने लोंगों से भाग कर, मैं अभी इस स्तिथी में नहीं हू कि हम खुद को सम्हाल सकें।" नियति बीच में ही बोली,"तो क्या हुआ, मैं नहीं जानती कुछ, कुछ भी करो, मुझे ले चलो बस"। बाबू ने फिर कोशिश की, यार समझो, परिवार वालों का क्या होगा, वो गांव में भी नहीं रह पायेंगें।" और "तुम तो सब समझ गये हो, है ना, मैं सब समझ चुकी हूं, तुम डरपोक हो, कभी जिन्दगी में गंभीर नही हुये, कभी मेरे लिये नहीं लडे, मैं ही पागल हूं जो बेताहशा भाग रही हूं तुम्हारे पीछे। सीधे शब्दों में कहूं, कायर हो तुम, कुछ नहीं कर पाओगे जिन्दगी में कभी।" ज्वालामुखी सी फूट पड़ी थी नियति। बाबू बस सुनता रहा और नियति को जाते देखता रह गया।
      दिन गुजरे और नियति चली गयी, बाबू को कभी कभी लगता कि उस दिन कुछ फैसला ले लेता तो समय कुछ और होता मगर शायद ये ही सब होना था और फिर नियति के बाद जो वो टूटा तो आज तक नहीं सम्हला। समस्यायें और भी बहुत हैं बाबू की जिन्दगी में, मगर इस हालत की जिम्मेदार जड़ वही अलगाव था। लगातार और बेहिसाब पीने से बाबू की हालत भी खराब रहती थी, मगर वो बस जैसे खुद को सजा देने पर तुला हुआ था।
   आज एक पुराने दोस्त की शादी थी, बारात कहीं दूसरे किसी गांव में जा रही थी, बाबू इस सब से दूर रहता था मगर दोस्त के आग्रह को मना न कर सका, और जब बारात गांव पहुची तो दरवाजे पर एक बच्चा गोदी में सुन्दर काया सी लिये नियति खड़ी थी, वो एकदम से उसे पहचान गया, मगर छिप गया। रात को दारु पार्टी हुई तो बाबू दो बोतल लिये तन्हाई की तलाश में निकल गया और सुकूं से बैठ कर पी ही रहा था कि पीछे से एक आहट सी सुनाई दी तुरन्त बोला, "आ गयी तुम?" नियति बोली आज भी मेरी आहट पहचान लेते हो। बाबू बिना देखे बोला, "मोहोब्बत नहीं, प्रीत जुड़ी है तुमसे, "तुझसे प्रीत पुरानी बिसरी।" बस आ ही जाती हो तुम हर बार, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष।"
    नियति अब तक सामने आ चुकी थी और उसके चेहरे की तरफ गौर से देखते हुये बोली, "अब लगता है मुझे कि मैं सही गयी थी, उस दिन। अगर न जाती तो तुम्हारे साथ तो जीवन नरक हो जाता। तुम्हारे बारे में पता चलता रहता था मुझे और आज देख के सब यकीं हो गया, कि मेरा फैसला सही था।" बाबू बोला," तो यहां ये बताने आयी हो तुम मुझे?" नहीं, मैं बस ये देखने आयी हूं कि अब भी कायर ही हो या कुछ बदल गया है।" बाबू बोला," अब तुम जाओ यहां से, कोई देख लेगा तो सही नही लगेगा।" देखा,देखा तुम आज भी डरपोक हो, यही कह रही थी मैं, नियति कंधें उचकाते हुये बोली और पीछे मुड़ गयी। बाबू ने एक बार फिर उसे देखा और अपनी बोतल खोल के बोला,
हमने की न परवाह कभी जमाने की रीत की,
न बात की अपनी कभी हार और जीत की,
तुम कायर, डरपोक, नकारा कहती रही हमेशा....
हमें तो तिश्नगी रही बस तुमसे प्रीत की.....

स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

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