Sunday, May 17, 2020

"चंदा"

"चंदा"
       वो भी क्या वक्त था, जब बाबा शाम को ७ बजे तक घर आ जाते थे और मैं भाग के बाबा से लिपट जाती। बाबा के कपडे़ पसीने और मिट्ठी से तर होते थे पर हमें तो बाबा साफ तभी मिले जब सुबह पास के हैण्डपम्प पर नहा कर आते थे। २ रोटी खाके और २ रोटी ले जाते थे पिन्नी में और कभी कभी अंगोछें में बांध के..... कितने खुश थे हम।
      मां अगल बगल के घरों में काम करती और मेरी वजह से जल्दी ही आ जाती। अरे मैं बताना भूल गयी मेरा नाम चंदा है और मैं चौथी में पढ़ती हूं। बाबा मजदूरी करते हैं, मां के बारे में अभी बताया तो था। हम न बहुत से लोग एक खाली प्लाट में तिरपाल डाल के रहते हैं। मुझे यहीं अच्छा लगता है, बडा घर तो एक दो बार मां के साथ गयी थी तभी देखा था, मालकिन ने मुझे अन्दर नहीं जाने दिया था, तो बस थोडा सा देखा था। बाबा बताते हैं इस कालौनी के ज्यादातर घर बाबा और हमारे साथ वालों ने ही बनाये हैं। बड़े बड़े घर और बड़े बड़े लोग। इत्ते बड़े की इन्हें मुझमें देवी बस नवदुर्गा में दिखती है और बाबा की भूख तब जब इनके घर पर कोई काम होता है।
     बाबा बताते हैं हम लोग यहां काफी समय से रह रहे हैं, ये कालोनी वालों की कृपा है या प्लाट वाले की मुझे नहीं पता। मैं तो स्कूल जाती हूं, फिर सो जाती हूं और शाम को खूब खेलती हूं, फिर मां आ जाती है और वो खाना बनाती है। फिर हम बाबा की राह तकते हैं। कितना बढिया था सबकुछ। फिर एक दिन बगल वाले छज्जू काका की तबियत खराब हो गयी, बूढे तो थे ही तो रात भर में हालत और बिगड़ी और छज्जू काका को पता नहीं सुबह क्या हो गया। सब घेरे खडे़ थे, बड़े लोग घरों की छतों पर थे, वहीं से गुस्से में कुछ कह रहे थे। मां बाबा और सारे लोगों की आंखों में आसूं थे।
    छज्जू काका फिर नहीं दिखे, पता नहीं कहां चले गये। मगर बाबा भी अब काम पर नहीं जाते, मां बाबा जाने क्या बात करते रहते हैं। कालोनी वाले भी आये थे एक बार, गुस्से में बाबा से बात की बहुत। बाबा और सारे लोगों ने अपना सामान इकट्ठा कर लिया है, पता नहीं क्यूं। सब परेशान है कुछ। बाबा आज रात उन मकानों को देखते रहे।
और सवेरे से हम लोग निकल आये।
मुझे नहीं पता, हम कहां जा रहे है पर मुझे ये पता है, मेरे बाबा कहीं भी जाये कुछ न कुछ करते ही हैं। बाबा मजदूर हैं ना..... और मजबूर भी।
स्वरचित व निजी विचार
सुमित सिंह पवार
उ०प्र०पु०

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