Saturday, May 16, 2020

अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी

अब_भी_जीवन_को_न_समझे_तो_विद्धुता_कैसी.....

न विचलित हो मन तो मानवता कैसी,
दर्द तक न पहुंच सको तो मोहोब्बत कैसी,
दिक्कत आंखों से न समझों तो चाहत कैसी,
बहुत ज्ञानता बखान ली
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

जिनके बिना छत नहीं है तुम्हारी,
न कार्यालय, न सड़क है तुम्हारी,
न शहर, न सफाई है तुम्हारी,
उनके बजूद को अब भी न स्वीकारा
तो चपलता कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

न समाज, न नर है, न नरायन इनका,
न जाने किस विधा पर होता है चयन इनका,
सबको महत्वहीन लगता पलायन इनका,
कोई इनके लिये न आगे आया, जाने ये सोच कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

कोई कहता विमारी के वाहक हैं ये,
कोई कहता बस इसी के लायक हैं ये,
असल में तुम्हारे समाज की उन्नति में सहायक हैं ये,
आज इनके अस्तित्व के निर्णय की पहचान कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

भटक रहे हैं मीलों उस देश में जो इनका हैं,
न आंखों में चमक, न बच्चों के पेट में तिनका है,
कौन इन्हें समझाये, कि कसूर किसका है,
दिल अब भी व्यथित न हुआ तो सम्पूर्णता कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

जबाब न मेरे पास है, न आपके,
जीवन जी रहे हैं ये, सांसे नाप के,
पैर नहीं, जिन्दगी टोकर खा रही सड़क पे,
ईश्वर अब अगर तू न पिघला तो तेरी दयालुता कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

स्वरचित
निजी विचार
सुमित सिंह पवार
उ०प्र०पु०

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