Sunday, May 24, 2020

"बचपन चला गया"

"बचपन चला गया"

   समय अपने हिसाब से ही विद्धान बनाता है और अपने हिसाब से ही समझदारी भी देता है, बाकी काम तो परिस्तिथियां कर देती हैं। बस तय आपको करना है कि कैसे और किससे क्या सीखना है...?
    तन्मय ८ साल का था और उस वक्त अचानक से समझदार हो गया जब मायके से लौटते वक्त एक दुर्घटना में उसकी मां की मृत्यु हो गयी। अपनी ३ साल की छोटी बहन पंक्ति को गोदी में लेकर बाबू जी से बोला कि पापा, "हम हैं ना, पंक्ति को सम्हाल लेगें।" बाबू जी ने दोनों बच्चों को गले लगाया और तन्मय की सकारात्मकता को भी स्वीकारा। कुछ दिनों बाद बाबू जी से दूसरी शादी के लिये भी लोग कहने लगे मगर बाबू जी राजी न हुये फिर भी दो बच्चे पालना और काम भी देखना बड़ा मुश्किल हो जाता है, तो दोनों को एक रिश्तेदार चाची के यहां भेज दिया गया।
     "पवार" के अनुसार बहुत कम लोग होते हैं, जो लम्बे समय तक इस तरह की मदद कर पाते हैं, वरना अक्सर झुंझलाहट बच्चों पर ही निकलती है। हुआ भी ये ही, तन्मय सारे काम भी करता, ताने भी सुनता और पंक्ति को अक्सर रोते भी देखता किन्तु वो अपनी मां के कारण बहुत समझदार था तो ये भी समझता था कि बाबू जी के विकल्प ही नहीं है कोई । बस सम्हाले हुआ था खुद को और पंक्ति को।
     उसका धैर्य उस दिन जबाब दे गया जब पंक्ति पर चाची ने हाथ उठा दिया और वो बिफर पड़ा। गुस्से में आंखें लाल करते हुये वो बोला, "देखो आपको जो कहना है, मुझे कहो, मेरी बहन से कुछ मत कहना" चाची ने एक थप्पड़ उसे भी लगा दिया। इत्तेफाकन तभी बाबू जी का घर में प्रवेश हुआ और तन्मय भाग के बाबू जी से चिपक गया और फूट पड़ा।
     पिताजी ने उसे सम्हाला और फिर रात भर समझाया और अपनी दिक्कतें भी गिनायी और वो बस सुनता रहा, ध्यान से। सुबह जब पिताजी वापस जाने वाले थे तो उन्होनें तन्मय की तरफ देखा और बोले, "चाची की बात मानना बेटा, लाली का भी ख्याल रखना, मैं जल्द आऊंगा और हां बच्चे हो तुम,बस ख्याल रखना।" तन्मय फटाक से रुआंसी आवाज में बोला, "हां रख लूंगा सबका ख्याल पर न तो ये मेरा बचपन है और न मैं बच्चा हूं, बचपन तो मां के साथ चला गया बाबू जी।"
      बाबू जी ने उसकी आंखों में एक अलग ही बच्चा देखा और बोल पड़े, "चल सामान उठा अपना और अपनी बहन का, हम ३ ही अब लड़ेगें।" चाची बोल पड़ी, "पर भाईसाहब।" बाबू जी ने अंगुली से चुप का इशारा किया और तन्मय दौड़ता हुआ कमरे में चला गया।
     बाबू जी को न जाने क्यूं कुछ लाईन याद आ गयी,
"ठोकरें खा के भी न सुधरे तो मुक्कद्दर राहगीर का,
राह के पत्थर तो अपना काम कर ही देते हैं।"
स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०


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