Thursday, May 28, 2020

"कच्चा आम"

"कच्चा आम"

क्यूं ताजगी नहीं मिलती भोर से,
क्यूं नीरस लगती तुम्हें ये शाम,
जीवन को इतना भी न समझों,
के रह न पाओ फिर "कच्चा आम"

थोड़ा सीखोगे,थोड़ा पढ़ोगे,थोड़ा बढ़ोगे,
त्वरित का नहीं है ये काम,
गर जल्दी पका लोगे खुद को
तो समझ परे है ये "कच्चा आम"

कच्चा होना, पक्के से बेहतर है,
गांठ बांध लो बस ये ज्ञान,
गहरे हो गये गर जग के आगे,
पका न सकोगे फिर "कच्चा आम"

कच्चे-पक्के में बस ये अन्तर है,
कच्चा तत्पर, पक्के को है आराम,
गिर गये जो पक के डाली से,
जोड़ न सकोगे फिर "कच्चा आम"

अंकुर से बाहर, धूप की मार तक,
सब सहना सिखाता है वो राम,
स्वघोषित परिपक्व हो गये तो,
फिर अचार ही बनेगा "कच्चा आम"

ललक झुकने की तरु से सीखों,
तभी बन पायेगा कुछ नाम,
हवाओं की रवानगी को न समझे,
कुचला जायेगा फिर "कच्चा आम"

अपनी करनी में सोच को जगह दो,
मत करो बेमतलब स्व: गुणगान,
तारिफें सब तुम कर लोगे,
क्यूं चखेगा, फिर कोई "कच्चा आम"

पवार कहता, सतत् को स्वीकारो,
जिज्ञासा को न दो आराम,
परिपूर्णता जीवनभर न आती,
इसलिये बने रहो "कच्चा आम"

स्वरचित
किसी को कुछ समझ न आये तो "कच्चे आम" बन के कमेन्ट में पूछ लें।🙏
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०


Tuesday, May 26, 2020

"किस्सा किस्मत और कर्म का"

"किस्सा किस्मत का"

         बिना कर्म के कुछ भी सम्भव नहीं, किस्मत भी उन्हीं का साथ देती है जो कर्म करते हैं, और किस्मत के भरोसे नहीं बैठतें। मगर आप किस्मत की अनदेखी भी नहीं कर सकते क्योंकि पवार  ने बहुत से लोगों को सिर्फ किस्मत के सहारे चमकते देखा है, हां, लेकिन वो चन्द लोग ही होते हैं, देर से ही सही असली सफलता की गारन्टी तो आपकी मेहनत ही देती है।
         चमन और रेखा कालेज में मिले और दिल दे बैठे। चमन बड़ा सीधा-साधा लड़का था और रेखा भी लगभग उसी के जैसी थी, दोनों ने साथ स्नातक किया और फिर परा स्नातक भी। इन पांच सालों में वो एक-दूसरे को भली-भांति जान गये थे और साथ जीने-मरने के अनकहे वादे भी कर चुके थे। चमन ने एक स्कूल में पढ़ाना सुरू कर दिया था और थोड़ा बहुत कमा के सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा था। घर से इतना मजबूत नही था वो, ये बात रेखा भी जानती थी। फिर रेखा का फोन आया एक दिन और बताया कि घर पर शादी की बात चल रही है, तुम आ जाओ। चमन बोला, मैं क्या बात करूंगा…?  रेखा बोली, कुछ भी करना, कल आ जाना जरूर, मैं सबको बता दूंगी। चमन ने कोई विकल्प न देख हां कह दी।
       रेखा घर की इकलौती लड़की थी, घरवाले उसकी हर बात सुनते थे।‌ माहौल बन चुका था, जैसे ही चमन पहुंचा, सबसे नमस्कार हुई और जानकारी लेने का दौर सुरु हुआ। रेखा के पापा बोले, बेटा आपका कोई निश्चित काम नहीं है और न नौकरी, कैसे बात बनेगी, बताओ। चमन बोला, जी, तैयारी कर रहा हूं, जल्द कुछ कर लुंगा। पापा बोले, देखो, हम दबाब बनाने वाले अभिभावक नहीं है, बेटी जहां कहेगी, कर देंगें शादी मगर बेटा हम भी तो कुछ देखेंगें और ज्यादा समय तुम्हारा न लेते हुये, बस इतना कहूंगा कि समय बता दो मुझे, कब तक इन्तजार करूं, ताकि तुम कहीं पहुंच सको और मैं निश्चित हो शादी कर सकूं। चमन ऐसी स्तिथी में पहली बार था और बोला जी, छ: माह का वक्त दे दीजिये। पिताजी मुस्कुरा के बोले, एक साल का दिया। मिलते हैं फिर, और हां मुझे वास्तव में इन्तजार रहेगा, तुम्हारे सफल होने का, निराश मत करना। कह के पिताजी निकल गये, और जब चमन निकला तो रेखा गेट तक छोड़ने आयी और बोली, देखो, मेहनत तो करनी होगी, तुम भी करो और मैं भी। देखते हैं क्या होता है फिर।

           चमन घर आ गया, बहुत सोचा और लगा कि यहीं वक्त है कुछ करने का वरना जिन्दगीभर दर्द भरे गाने सुनता रह जाऊंगा और छोटी-मोटी नौकरी छोड़,कष्ट भुगतता हुआ वो लग गया तैयारी में और ऐसा लगा कि सबकुछ भूल गया। न खाने की सुध न किसी से मतलब,बस किताबें, किताबें और किताबें। उसने रेखा से बात करना भी लगभग बन्द कर दिया, रेखा भी ये समझती थी सुरक्षित भविष्य के लिये ये दूरी जरुरी है और वो भी कुछ न कुछ पढ़ती रहती। कभी-कभी जब दोनों की बात होती तो चमन बताता की क्या पढ़ रहा है या कितना पढ़ लिया और क्या समझ नहीं आ रहा उसे। रेखा तेज थी पढ़ने में कुछ समस्यायें फोन पर ही हल कर देती।
      ९ महिने की घनघोर तैयारी के बाद, परिक्षा की तिथी भी घोषित हुई और चमन परिक्षा भी देकर आया, मगर उम्मीद के मुताबिक नहीं कर पाया तो रेखा ने समझाया, अरे कोई नहीं, हो जायेगा तुम्हारा, तुमने पूरी मेहनत की है। चमन के लिये ये शब्द काफी नहीं थे वो अगली परीक्षा की तैयारी में लग गया, २ महिने बचे थे बस, रेखा के पापा को बताने को कुछ नहीं था, उसके पास और अगली परिक्षा भी अभी निश्चित नहीं थी। भविष्य और प्यार को अंधेरें में देख एक रात वो टूट गया, और रेखा से बात करते-करते रो पड़ा। बोले जा रहा था, मैंने पहले बहुत वक्त बर्बाद कर दिया यार, सही समय पर मेहनत कर लेता तो हमारा कुछ हो जाता मगर मैं अब क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा। रेखा ने खूब तसल्ली दी, मगर वो काफी नहीं थी।
        और २ महिने भी बीत गये, परिक्षा का परिणाम भी आया और चमन ३ नम्बर से चयन पाने से रह गया और पूरी तरह टूट गया। रेखा ने खूब फोन किये उसे मगर उसकी हिम्मत नहीं थी उठाने की। फिर नये नम्बर से फोन आया, चमन ने उठाया और उधर से भारी सी आवाज आयी, कैसे हो चमन बेटा, मैं रेखा का पिता बोल रहा हूं। निराश आवाज में चमन बोला, जी नमस्ते। क्या हुआ बेटे रिजल्ट का? जी, फेल हो गया मैं, और दबती सी आवाज में बोला चमन। तो अब क्या करना है बेटा जी। जी, जो आपको ठीक लगे, मैं तो फेल ही हूं, और चमन ने फोन काट दिया।
       और चमन ने सब कुछ किस्मत पर छोड़ एक बार फिर किताबें उठायी, लग गया फिर से। दो दिन बाद रेखा, अपने मां-बाप के साथ चमन के घर पर खड़ी थी और उन लोगों को अन्दर बैठाया गया, चाय नाश्ता लगाया गया। चमन और रेखा दोनों सर झुकाये बैठे थे, रेखा के पापा बात सुरू करते हुये चमन के पापा से बोले, कि देखिये हमारे और चमन के बीच एक डील हुई थी, और चमन उसमें फेल हो गया। हम लड़की वाले हैं, हमें तो आगे बढ़ना ही है, और हमने रेखा की शादी तय कर दी है,उसी की मिठाई देने परिवार सहित आया हूं, बेटे दिल छोटा मत करना, मगर एक बाप की नजर से देखोगे तो मैं गलत नहीं हूं। चमन की आंखों से दो आंसू टपक पड़े, बेइन्तेहा प्यार जो करता था रेखा से, और ये अंतिम मौका था रेखा को देखने का। वो खड़ा होकर रूआसीं सी आवाज में बोला, क्या मुझे एक मौका और मिल सकता है अंकल? रेखा के पापा सख्त होते हुये बोले, नहीं और उसकी तरफ मिठाई का डब्बा बढ़ाते हुये बोले, अब तुम देखो, जो करना है, जब भी करना हो, कर लेना। रेखा तो जा रही है।
       रेखा परिवार सहित जाने को खड़ी हो गयी, चमन बस खड़ा रह गया और रेखा बोली, रोकेगे नहीं मुझे, लाल आंखों से चमन ने उसकी तरफ देखा और लगभग फर्स पर बैठ सा गया, भर्रायी सी आवाज में बोला, कैसे रोकूं तुम्हें, तुम्हारे पिताजी की बात सही है बिल्कुल और मै कुछ भी कर नहीं पाया। रेखा की मां बोली, बहुत हुआ अब बन्द करो ये नाटक सारे लोग, बच्चे को बीमार करोगे क्या, कितने सख्त हो सारे लोग। बेटा परिक्षा में फेल हुये हो, जिन्दगी में नहीं और हां तुम्हारे वाले पेपर की तैयारी तुम्हें बिन बताये रेखा ने भी कि थी और ये सफल हो गयी है, हमें तो बेटा तुम दोनों की खुशी चाहिये बस, अब हम निश्चिंत हो तुम दोनों की शादी करा सकते हैं, क्योंकि तुम आत्मनिर्भर हो। बस यही देखना था तुम दोनों में कितना बालपन बाकी है अभी।
    चमन तो भौच्चक सा देखता रह गया। और हां, रेखा के पापा बोले, ये सब तुम्हारे मां-बाप को भी पता है, पिछले एक साल से हम सम्पर्क में हैं, मैं तुम्हारी तैयारी और त्याग के बारे में सब जानता हूं बेटा मगर रेखा ने चयन पाकर हम सबको वास्तव में चौंका दिया, क्योंकि खिलाड़ी के रूप में हम सब खेल तुम्हारा देख रहे थे और गोल रेखा कर गयी, मगर जीते तो दोनों ना, रेखा की मां बीच में टोकते हुये बोला और सब हस पड़े। शादी तो हो जायेगी बेटा, मगर तैयारी जारी रखो, रेखा के पापा ने आश्वासन दिया और वो मिठाई रेखा के चयन की है बेटा जी।
        चमन सबको दरवाजे तक छोड़ कर "सौदेबाज किस्मत" और "कर्म" में अन्तर कर रहा था, फिर किताब उठाई और लग गया तैयारी में।
स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

Monday, May 25, 2020

"बस दो कदम"

"बस दो कदम"

रहो साथ मेरे बस तुम जन्मों-जन्म,
हाथों में हाथ हो, मौसम भी सर्द गरम,
बहुत भागा-दौड़ी है हमारी जिन्दगी में
बैठों कुछ पल, चलते हैं साथ दो कदम....

कभी तुम्हारी चाय को याद करता हूं,
फिर

तन्हाई में शायरी करता हूं,


बेफिक्र सा मैं, फिक्र भी करता हूं,
लगती हो सच कभी, और कभी भ्रम
बहुत भागा-दौड़ी है हमारी जिन्दगी में
बैठों कुछ पल, चलते हैं साथ दो कदम....

खिलखिलाना तुम्हारा गूंजता है,
शैतानियों में मन झूमता है,
अतीत सारा नजरों में घूमता है,
मैं तो हूं बस यहां, मन वही है सनम
बहुत भागा-दौड़ी है हमारी जिन्दगी में
बैठों कुछ पल, चलते हैं साथ दो कदम....

मेरी ख्वाहाशों को जो तुम तवज्जो देती हो,
मेरे हर दुख को जो अपना समझ लेती हो,
माथे की शिकन से ही सब पढ़ लेती हो,
तुम हो जो पास"पवार" के, ईश्वर का है ये करम
बहुत भागा-दौड़ी है हमारी जिन्दगी में
बैठों कुछ पल, चलते हैं साथ दो कदम....

मेरी शायरी,कविताओं का आधार तुम हो,
नीरस सी जिन्गी की झंकार तुम हो,
मेरी तो बस चाहत और प्यार तुम हो,
तुम ही लेख मेरे, तुम ही मेरी नज्म
बहुत भागा-दौड़ी है हमारी जिन्दगी में
बैठों कुछ पल, चलते हैं साथ दो कदम....

स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

Sunday, May 24, 2020

"बचपन चला गया"

"बचपन चला गया"

   समय अपने हिसाब से ही विद्धान बनाता है और अपने हिसाब से ही समझदारी भी देता है, बाकी काम तो परिस्तिथियां कर देती हैं। बस तय आपको करना है कि कैसे और किससे क्या सीखना है...?
    तन्मय ८ साल का था और उस वक्त अचानक से समझदार हो गया जब मायके से लौटते वक्त एक दुर्घटना में उसकी मां की मृत्यु हो गयी। अपनी ३ साल की छोटी बहन पंक्ति को गोदी में लेकर बाबू जी से बोला कि पापा, "हम हैं ना, पंक्ति को सम्हाल लेगें।" बाबू जी ने दोनों बच्चों को गले लगाया और तन्मय की सकारात्मकता को भी स्वीकारा। कुछ दिनों बाद बाबू जी से दूसरी शादी के लिये भी लोग कहने लगे मगर बाबू जी राजी न हुये फिर भी दो बच्चे पालना और काम भी देखना बड़ा मुश्किल हो जाता है, तो दोनों को एक रिश्तेदार चाची के यहां भेज दिया गया।
     "पवार" के अनुसार बहुत कम लोग होते हैं, जो लम्बे समय तक इस तरह की मदद कर पाते हैं, वरना अक्सर झुंझलाहट बच्चों पर ही निकलती है। हुआ भी ये ही, तन्मय सारे काम भी करता, ताने भी सुनता और पंक्ति को अक्सर रोते भी देखता किन्तु वो अपनी मां के कारण बहुत समझदार था तो ये भी समझता था कि बाबू जी के विकल्प ही नहीं है कोई । बस सम्हाले हुआ था खुद को और पंक्ति को।
     उसका धैर्य उस दिन जबाब दे गया जब पंक्ति पर चाची ने हाथ उठा दिया और वो बिफर पड़ा। गुस्से में आंखें लाल करते हुये वो बोला, "देखो आपको जो कहना है, मुझे कहो, मेरी बहन से कुछ मत कहना" चाची ने एक थप्पड़ उसे भी लगा दिया। इत्तेफाकन तभी बाबू जी का घर में प्रवेश हुआ और तन्मय भाग के बाबू जी से चिपक गया और फूट पड़ा।
     पिताजी ने उसे सम्हाला और फिर रात भर समझाया और अपनी दिक्कतें भी गिनायी और वो बस सुनता रहा, ध्यान से। सुबह जब पिताजी वापस जाने वाले थे तो उन्होनें तन्मय की तरफ देखा और बोले, "चाची की बात मानना बेटा, लाली का भी ख्याल रखना, मैं जल्द आऊंगा और हां बच्चे हो तुम,बस ख्याल रखना।" तन्मय फटाक से रुआंसी आवाज में बोला, "हां रख लूंगा सबका ख्याल पर न तो ये मेरा बचपन है और न मैं बच्चा हूं, बचपन तो मां के साथ चला गया बाबू जी।"
      बाबू जी ने उसकी आंखों में एक अलग ही बच्चा देखा और बोल पड़े, "चल सामान उठा अपना और अपनी बहन का, हम ३ ही अब लड़ेगें।" चाची बोल पड़ी, "पर भाईसाहब।" बाबू जी ने अंगुली से चुप का इशारा किया और तन्मय दौड़ता हुआ कमरे में चला गया।
     बाबू जी को न जाने क्यूं कुछ लाईन याद आ गयी,
"ठोकरें खा के भी न सुधरे तो मुक्कद्दर राहगीर का,
राह के पत्थर तो अपना काम कर ही देते हैं।"
स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०


Saturday, May 23, 2020

"लागी तुझसे मन की प्रीत"

"लागी तुझसे मन की प्रीत"
      
        यादों और प्रीत में मेरे हिसाब से थोड़ा अन्तर होता है, यादें कैसी भी हो सकती हैं, अच्छी या बुरी, मगर प्रीत हमेशा सकारात्मक ही लगती है, एक दिली जुड़ाव का नाम है प्रीत और प्रीत कभी बदलती भी नहीं है। समय के साथ भी नहीं, बस जब कभी जुड़ाव प्रत्यक्ष आता है प्रीत उभर कर सामने आती है।
      बाबू एक समाज की नजर में एक बिगड़ैल लड़का है, और जैसे-जैसे जवानी के अंकुर उसमें फूटे, थोड़ा कमाने लगा तो हर बुरी आदत ने उसको जकड़ लिया। दारू सहित हर तरह की नशेबाजी आम सी हो गयी उसके लिये और ये सब रोज का सा था। हालांकि किशोर अवस्था के अन्त तक और जवानी कि पहली किश्त तक वो ऐसा नहीं था, बाद में वक्त बदला और वो बहकता गया।
      नशे में टुन्न बाबू एक पेड़ के नीचे बैठा था, तभी स्कूटी पर एक लड़का और लड़की, अरे बचो, सम्हलो, गिरा मत देना.... कहते हुये उसकी ओर आ रहे थे । शायद लड़की स्कूटी सीख रही थी। बाबू के बगल से वो लोग निकल गये और बाबू नियति की याद में ५ साल पीछे खो गया। कैसे गांव की एक शादी में उसकी मुलाकात नियति से हुई थी और खूब हंसी-टिठौली भी हुई थी। उसके बगल के गांव की लड़की थी नियति। भोली सी, मासूम सी जब भी बाबू को मिलती, दुनिया भर की बांते करती और बोलती तो बोलती ही चली जाती। बाबू एकटक उसे देखता रह जाता और सोचता की ये पल कभी खत्म न हो। 
     ये मिलना-मिलाना लगभग रोज का सा था, और दोनों खुश भी थे क्योंकि दोनों एक दूसरे को अन्त तक सुनते थे लेकिन सबकुछ हमेशा ठीक चले, ये कहां मुमकिन है। सूखे पत्तों में आग की तरह ये खबर दोनों गांव मे उड़ने लगी और जल्द ही दोनों के घरवालों को भी सूचित हो ही गया। नियति पर रोक लगाई गयी और एक वही पुराना ब्रम्हास्त्र नियति की शादी तय की गयी। इस सब की खबर बाबू को मिलती रहती थी मगर वो समझ चुका था उसके हाथ में कुछ नहीं है, नियति उसकी नियति में नहीं है। बस खुद को टूटता सा देख रहा था रोज, हौले-हौले।
     पवार के अनुसार, समय कैसा भी हो मगर आपको एक मौका तो मिलता ही है, पर गलत सही का फैसला भी आपको लेना है, परिणाम भी सोचने होतें हैं। बाबू के साथ भी ऐसा हुआ । नियति की एक सहेली बाबू से मिली और बताया कल नियति आपसे मिलेगी, कुछ जरूरी बात करनी है। तैयार रहना। आंखों में चमक लिये निश्चित स्थान पर बाबू पहुंचा तो नियति उससे गले लग रो पड़ी और बोली कि मुझे नहीं करनी ये शादी, बाबू, मुझे यहां से ले चलो, हम कैसे भी रह लेंगें। मैं हर परिस्तिथी का सामना कर लुंगी बस तुम साथ हो, नियति बस बोले जा रही थी। बाबू ने उसको खुद से अलग किया और बोला, "नियति ये सम्भव नहीं हैं,हम कहां जायेंगें अपने लोंगों से भाग कर, मैं अभी इस स्तिथी में नहीं हू कि हम खुद को सम्हाल सकें।" नियति बीच में ही बोली,"तो क्या हुआ, मैं नहीं जानती कुछ, कुछ भी करो, मुझे ले चलो बस"। बाबू ने फिर कोशिश की, यार समझो, परिवार वालों का क्या होगा, वो गांव में भी नहीं रह पायेंगें।" और "तुम तो सब समझ गये हो, है ना, मैं सब समझ चुकी हूं, तुम डरपोक हो, कभी जिन्दगी में गंभीर नही हुये, कभी मेरे लिये नहीं लडे, मैं ही पागल हूं जो बेताहशा भाग रही हूं तुम्हारे पीछे। सीधे शब्दों में कहूं, कायर हो तुम, कुछ नहीं कर पाओगे जिन्दगी में कभी।" ज्वालामुखी सी फूट पड़ी थी नियति। बाबू बस सुनता रहा और नियति को जाते देखता रह गया।
      दिन गुजरे और नियति चली गयी, बाबू को कभी कभी लगता कि उस दिन कुछ फैसला ले लेता तो समय कुछ और होता मगर शायद ये ही सब होना था और फिर नियति के बाद जो वो टूटा तो आज तक नहीं सम्हला। समस्यायें और भी बहुत हैं बाबू की जिन्दगी में, मगर इस हालत की जिम्मेदार जड़ वही अलगाव था। लगातार और बेहिसाब पीने से बाबू की हालत भी खराब रहती थी, मगर वो बस जैसे खुद को सजा देने पर तुला हुआ था।
   आज एक पुराने दोस्त की शादी थी, बारात कहीं दूसरे किसी गांव में जा रही थी, बाबू इस सब से दूर रहता था मगर दोस्त के आग्रह को मना न कर सका, और जब बारात गांव पहुची तो दरवाजे पर एक बच्चा गोदी में सुन्दर काया सी लिये नियति खड़ी थी, वो एकदम से उसे पहचान गया, मगर छिप गया। रात को दारु पार्टी हुई तो बाबू दो बोतल लिये तन्हाई की तलाश में निकल गया और सुकूं से बैठ कर पी ही रहा था कि पीछे से एक आहट सी सुनाई दी तुरन्त बोला, "आ गयी तुम?" नियति बोली आज भी मेरी आहट पहचान लेते हो। बाबू बिना देखे बोला, "मोहोब्बत नहीं, प्रीत जुड़ी है तुमसे, "तुझसे प्रीत पुरानी बिसरी।" बस आ ही जाती हो तुम हर बार, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष।"
    नियति अब तक सामने आ चुकी थी और उसके चेहरे की तरफ गौर से देखते हुये बोली, "अब लगता है मुझे कि मैं सही गयी थी, उस दिन। अगर न जाती तो तुम्हारे साथ तो जीवन नरक हो जाता। तुम्हारे बारे में पता चलता रहता था मुझे और आज देख के सब यकीं हो गया, कि मेरा फैसला सही था।" बाबू बोला," तो यहां ये बताने आयी हो तुम मुझे?" नहीं, मैं बस ये देखने आयी हूं कि अब भी कायर ही हो या कुछ बदल गया है।" बाबू बोला," अब तुम जाओ यहां से, कोई देख लेगा तो सही नही लगेगा।" देखा,देखा तुम आज भी डरपोक हो, यही कह रही थी मैं, नियति कंधें उचकाते हुये बोली और पीछे मुड़ गयी। बाबू ने एक बार फिर उसे देखा और अपनी बोतल खोल के बोला,
हमने की न परवाह कभी जमाने की रीत की,
न बात की अपनी कभी हार और जीत की,
तुम कायर, डरपोक, नकारा कहती रही हमेशा....
हमें तो तिश्नगी रही बस तुमसे प्रीत की.....

स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

Friday, May 22, 2020

"जिज्ञासा और जीवन"

"जिज्ञासा और जीवन"
     जिज्ञासा ही जीवन के जुझारूपन की जड़ है, और अगर जिज्ञासा ही न रहे तो जीवन निरर्थक और बोझिल सा हो जाता है इसलिये हमेशा जिज्ञासु बने रहिये और जानते-सीखते रहिये आस-पास के माहौल और लोगों से। जीवन में मजा भी आयेगा और नवीनता भी बनी रहेगी।
      मधु पैंतीस वर्षीय एक कामकाजी महिला है और हमेशा से जिज्ञासु प्रवृत्ति की रही है तो आज एक निश्चित मुकाम पर भी है, वह एक बड़ी नामी कम्पनी में नौकरी करती है और अच्छा वेतन पाती है। मतलब सबकुत ठीक और लाजबाब चल रहा है। इस कम्पनी में उसे काम करते हुये ४ चार हो गये और कम्पनी को मधु ने काफी मेहनत से एक सफल कम्पनी में बदला है इसलिये उसके मालिक उसे सिर्फ कर्मचारी नहीं कम्पनी का मजबूत स्तम्भ मानते हैं।
     कम्पनी में विशाल नाम का एक युवक भी है, जो बहुत मेहनती और बढि़या दिखने वाला है। ये एम.बी.ए. पास युवा २ साल से कम्पनी में है और इसके उपाय और तरीके नायाब होते हैं, मधु कई बार विशाल के त्वरित निर्णय लेने की क्षमता से प्रभावित हुई है। कभी-कभी मधु को लगा है कि विशाल सिर्फ उसे बास की तरह ही नहीं देखता, उसकी आंखें और भी कुछ कहना चाहती हैं, मगर फिर वह अक्सर चुप रह जाता है।
       पवार की ये कहानी थोड़ी बड़ी हो सकती है, मगर धैर्य से पढ़ियेगा। एक दिन लंच में जब मधु आफिस की छत पर थी तो वही विशाल आयख और बोला देखो, मधु आप मुझसे उम्र और ओहदे दोनों में बड़ी हो, अनुभवी हो और एक सफल महिला हो, खैर इन सब बातों को अगर छोड़ भी दूं तो व्यक्तिगत रूप से आप मुझे बहुत पसन्द हो, मैं बस ये बताना चाहता हूं कि मैं आपसे लगाव रखता हू और काफी हिम्मत कर ये सब कह रहा हू, तो आपके दिल में अगर कुछ भावनायें हो मेरे लिये तो बता दीजियेगा और सोच समझ के जबाब दीजियेगा, मैं इन्तजार करूंगा। और हां, इससे हमारे काम पर कोई फर्क नहीं पढेगा।
   विशाल चला गया, और मधु अतीत में खो गयी। कैसे बचपन से उसने संघर्ष की है और किसी ने कभी उससे प्यार तो दूर सहानुभूति भी नहीं रखी। पिता का देहान्त जब वो ८ साल की थी तभी हो गया था,  उसका और उसके छोटे भाई का लालन-पालन मां ने बड़ी मस्सक्कत और मेहनत से किया था। जैसे-जैसे वो समझदार हुई, अपनी जिम्मेदारियां भी सम्हालती गयी, और टोकरें खाती हुई और समाज से तौर-तरिके सीखते हुये अपने छोटे भाई का भविष्य भी सम्हाला और अपना भी। बाद में छोटा भाई प्रेम-विवाह कर अलग हो गया। कभी-कभी फोन कर लेता है। अब घर में मां और मधु ही रहते हैं। मां अक्सर कहती है कि तू शादी कर ले, बहुत देर हो गयी है वैसे भी। मगर मधु को तो ये रिश्ते जैसे क्षणिक लगते है। एक लम्बा अर्शा जो उसने इस निर्मोही समाज से लड़कर जिया है, तो विश्वाव ज्यादा उसको किसी पर रहा ही नहीं है।
      मगर विशाल के बारे में उसे सोचना चाहिये, उसने अपने मन से कहा। मगर अन्दर से आवाज आयी वो तुझसे ०३ साल छोटा है, कम्पनी में भी कम ओहदे पर है और भी बहुत कुछ। समाज क्या कहेगा? फिर खुद बोली, समाज तो कुछ न कुछ कहता ही है हमेशा इसलिये कल जरूर विशाल से बात करेगी और मन की बात कह देगी। अगले दिन वो इन्तजार करती रही मगर विशाल आफिस नहीं आया और उसका नम्बर भी नहीं लगा। अगले २-३ दिन भी विशाल नहीं आया तो मधु ने उसके साथ के लोगों से पता करने को बोला।
      २ दिन बाद चेतन जो विशाल का दोस्त था, उसने मधु को बताया कि विशाल तो गांव में है और अब नहीं आ पायेगा। मधु चौंकते हुये बोली क्यूं क्या हुआ, चेतन बोला, अरे उसकी शादी हो गयी, गांव में एक लड़की से ये प्यार करता था और फिर शहर आ गया था, बीच-बीच में गांव जाता रहता था और अब उससे शादी की मना करता था, तो उस लड़की ने बात घर बता दी, पंचायत बैठी और फैसला हूआ, इसको शादी करनी होगी। बहाने से बुलाया गया और शादी कर दी गयी।
एक सांस में चेतन ये सब बोल गया।
      मधु फिर सोचने लगी, जिन्दगी जाने क्या चाहती है मुझसे। जब भी लगाव सा हुआ है, उस शक्स को अलग ही कर दिया है। तभी जीवन को सिर्फ अपने लिये और अपनी मां के लिये जीने का फैसला किया और बाल सम्हालते हुये काम में लग गयी, दिमाग में चल रहा था, पता नहीं ये सोच "अंत है या आरम्भ"
स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

"दो कप चाय"

"दो कप चाय"

हो मुनासिब तो साथ मेरे जी लेना,
होके तैयार फिर जख्मों को सीं लेना,
न नजर आये कोई जब अपना सा
आना बेझिझक मेरे पास,
और दो कप चाय पी लेना....

चाय नहीं ये वक्त गुजारने का तरीका है,
अपनों से अपनी कहने का मौका है,
मेरा नहीं, तेरा नहीं हक इस पर सबका है,
जायका चाहो जब इसका कभी लेना
आना बेझिझक मेरे पास,
और दो कप चाय पी लेना....

कलयुग का सोमरस समझो इसे,
भौतिकता में रसायन मानों इसे,
सर्वश्रेष्ट मसालों का मिश्रण जानों इसे,
चाहो लबों पर जब इसकी नमी लेना
आना बेझिझक मेरे पास,
और दो कप चाय पी लेना....

साथ इसके साथी बहुत हैं,
बिस्कुट,नमकीन,पापे सब इसमें घुलित हैं,
चीनी, पत्ती, दूध सब इसमें निहित हैं,
जगह न इसकी कोई ले सका,
चाहे कितना भी पी घी लेना
फिर आना बेझिझक मेरे पास,
और दो कप चाय पी लेना....

ताजगी की घोतक यही है,
सर्द रातों की सच्ची ज्योत यही है,
पवार के तो दिन का आधार स्त्रोत यही है,
तुम भी भटको मत, ज्ञान सही लेना
और
आना बेझिझक मेरे पास,
और दो कप चाय पी लेना....

स्वरचित
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

Sunday, May 17, 2020

"चंदा"

"चंदा"
       वो भी क्या वक्त था, जब बाबा शाम को ७ बजे तक घर आ जाते थे और मैं भाग के बाबा से लिपट जाती। बाबा के कपडे़ पसीने और मिट्ठी से तर होते थे पर हमें तो बाबा साफ तभी मिले जब सुबह पास के हैण्डपम्प पर नहा कर आते थे। २ रोटी खाके और २ रोटी ले जाते थे पिन्नी में और कभी कभी अंगोछें में बांध के..... कितने खुश थे हम।
      मां अगल बगल के घरों में काम करती और मेरी वजह से जल्दी ही आ जाती। अरे मैं बताना भूल गयी मेरा नाम चंदा है और मैं चौथी में पढ़ती हूं। बाबा मजदूरी करते हैं, मां के बारे में अभी बताया तो था। हम न बहुत से लोग एक खाली प्लाट में तिरपाल डाल के रहते हैं। मुझे यहीं अच्छा लगता है, बडा घर तो एक दो बार मां के साथ गयी थी तभी देखा था, मालकिन ने मुझे अन्दर नहीं जाने दिया था, तो बस थोडा सा देखा था। बाबा बताते हैं इस कालौनी के ज्यादातर घर बाबा और हमारे साथ वालों ने ही बनाये हैं। बड़े बड़े घर और बड़े बड़े लोग। इत्ते बड़े की इन्हें मुझमें देवी बस नवदुर्गा में दिखती है और बाबा की भूख तब जब इनके घर पर कोई काम होता है।
     बाबा बताते हैं हम लोग यहां काफी समय से रह रहे हैं, ये कालोनी वालों की कृपा है या प्लाट वाले की मुझे नहीं पता। मैं तो स्कूल जाती हूं, फिर सो जाती हूं और शाम को खूब खेलती हूं, फिर मां आ जाती है और वो खाना बनाती है। फिर हम बाबा की राह तकते हैं। कितना बढिया था सबकुछ। फिर एक दिन बगल वाले छज्जू काका की तबियत खराब हो गयी, बूढे तो थे ही तो रात भर में हालत और बिगड़ी और छज्जू काका को पता नहीं सुबह क्या हो गया। सब घेरे खडे़ थे, बड़े लोग घरों की छतों पर थे, वहीं से गुस्से में कुछ कह रहे थे। मां बाबा और सारे लोगों की आंखों में आसूं थे।
    छज्जू काका फिर नहीं दिखे, पता नहीं कहां चले गये। मगर बाबा भी अब काम पर नहीं जाते, मां बाबा जाने क्या बात करते रहते हैं। कालोनी वाले भी आये थे एक बार, गुस्से में बाबा से बात की बहुत। बाबा और सारे लोगों ने अपना सामान इकट्ठा कर लिया है, पता नहीं क्यूं। सब परेशान है कुछ। बाबा आज रात उन मकानों को देखते रहे।
और सवेरे से हम लोग निकल आये।
मुझे नहीं पता, हम कहां जा रहे है पर मुझे ये पता है, मेरे बाबा कहीं भी जाये कुछ न कुछ करते ही हैं। बाबा मजदूर हैं ना..... और मजबूर भी।
स्वरचित व निजी विचार
सुमित सिंह पवार
उ०प्र०पु०

Saturday, May 16, 2020

माहौल भोर का....

#माहौल_भोर_का....

इकटक नजर,
और माहौल भोर का....
दिमागी शान्ती,
न टंटा किसी शोर का....
देखता हूं जहां तक,
सोच ही दिखती है,
अब ये वक्त मेरा है,
न किसी और का....
सागर गहरा है,
बहुत खुदी का,
न पता किसी ओर-छोर का....
खुद को सम्हालने की इस स्तिथी में,
झटका न लगे बस जोर का.....
बनाये रखो दूरी कुछ,
पर मन से जुड़े रहो,
जैसे रिश्ता हो,
पतंग और डोर का.....
है हिदायत तो जिन्दगी है,
है शिकायत तो सुधारगी है,
बस मानते रहो,
बढ़ते रहो,
न लाओ उर में कठोरता....
बीत जायेगा,
समय ये भी हौले हौले,
बस धैर्य रख,
और बढ़ता चल,
बचाव की चादर ओढ़ता....
देख गौर से,
बहुत कुछ सीखाता है,
ये माहौल भोर का......
स्वरचित
सुमित सिंह पवार
उ०प्र०पु०

अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी

अब_भी_जीवन_को_न_समझे_तो_विद्धुता_कैसी.....

न विचलित हो मन तो मानवता कैसी,
दर्द तक न पहुंच सको तो मोहोब्बत कैसी,
दिक्कत आंखों से न समझों तो चाहत कैसी,
बहुत ज्ञानता बखान ली
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

जिनके बिना छत नहीं है तुम्हारी,
न कार्यालय, न सड़क है तुम्हारी,
न शहर, न सफाई है तुम्हारी,
उनके बजूद को अब भी न स्वीकारा
तो चपलता कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

न समाज, न नर है, न नरायन इनका,
न जाने किस विधा पर होता है चयन इनका,
सबको महत्वहीन लगता पलायन इनका,
कोई इनके लिये न आगे आया, जाने ये सोच कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

कोई कहता विमारी के वाहक हैं ये,
कोई कहता बस इसी के लायक हैं ये,
असल में तुम्हारे समाज की उन्नति में सहायक हैं ये,
आज इनके अस्तित्व के निर्णय की पहचान कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

भटक रहे हैं मीलों उस देश में जो इनका हैं,
न आंखों में चमक, न बच्चों के पेट में तिनका है,
कौन इन्हें समझाये, कि कसूर किसका है,
दिल अब भी व्यथित न हुआ तो सम्पूर्णता कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

जबाब न मेरे पास है, न आपके,
जीवन जी रहे हैं ये, सांसे नाप के,
पैर नहीं, जिन्दगी टोकर खा रही सड़क पे,
ईश्वर अब अगर तू न पिघला तो तेरी दयालुता कैसी,
अब भी जीवन को न समझे तो विद्धुता कैसी.....

स्वरचित
निजी विचार
सुमित सिंह पवार
उ०प्र०पु०