Monday, June 29, 2020

संतोषी सदा सुखी

         "संतोषी सदा सुखी"
            अभी कल ही कहीं पढ़ रहा था, "बिल गेट्स" के अनुसार, "यदि क्षणिक सुख चाहते हो तो गाने सुन लो। यदि एक दिन का सुख चाहते हो तो पिकनिक पर चले जाओ। एक सप्ताह का सुख चाहते हो तो यात्रा पर चले जाओ। एक दो महिने का सुख चाहते हो तो शादी कर लो। कुछ सालों का सुख चाहते हो तो धन कमाओ लेकिन यदि जिन्दगी भर का सुख चाहते हो तो अपने काम से प्यार करो।"
          उपरोक्त सब बातों से ये समझ आता है कि आदमी जिन्दगी जीने के लिये और बेहतर जीने के लिये कितनी मेहनत करता है और फिर भी बढ़िया जिन्दगी जीये बिना ही चला जाता है। आप सबने अपनी जिन्दगी में कभी न कभी ट्रकों के पीछे वो लाईन तो पढ़ी होगी "संतोषी सदा सुखी"। यकीं मानिये इन शब्दों में जीवन का सार छिपा है। संतोष,धैर्य,धीरज,दिलासा,सब्र और तसल्ली पाना और इसे स्वीकारना अपने आप में एक किताब है। कहते हैं ना "धैर्य रखना हर किसी के बस का नहीं है।" क्योंकि धैर्य या संतोष एक दिन में नहीं आ जाता, इसके लिये खुद को तैयार करना पड़ता है, हर बात की गहरायी को समझना होता है और तब निर्णय लेना होता है।
           आनन्द मूवी का वो डायलॉग तो याद होगा आप सबको, जिन्दगी लम्बी नहीं, बड़ी होनी चाहिये बाबूमोशाय। मगर ये बड़ी या लम्बी जिन्दगी का चक्कर भी तो समझ आना चाहिये और मैंने बस ये समझा है कि हर पल को, क्षण को भरपूर जीओ, ऐसे कि कल है ही नहीं और कुछ लोग अपने पास हमेशा ऐसे रखो जिनसे आप अपना दिल खोल सको, जो हो बोल सको। कहीं पढ़ा था मैंनें, अगर दिल खोल लिया होता यारों के साथ, तो खोलना न पड़ता आज औजारों के साथ।" तो जीते रहिये, खुश रहिये और बढ़ते रहिये।
          मैं पढ़ता बहुत हूं और जब किसी दिक्कत में फसता हूं तो वही बांतें समझ आती हैं, जैसे कहीं पढ़ा था, कि "जब वो दिन(अच्छे दिन) नहीं रहे तो ये दिन(कठिन दिन) भी नहीं रहेंगें" और धैर्य रखता हूं, यकीं मानिये कुछ न कुछ हल मिल ही जाता है। वो मूवी देखी है आपने "जिन्दगी न मिलेगी दोबारा" उसमें नायक की इच्छायें देखी थी, कि ३०-४० तक कमाऊंगा और फिर आराम से मौज करूंगा, तब नायिका कहती है, किसे पता है तुम ४० तक जिन्दा भी रहोगे या नहीं? बात बस इतनी सी ही है मित्रों। भविष्य की खुशी के चक्कर में हम आज बर्बाद कर रहे हैं। मैं ये नहीं कहता कि भविष्य की प्लानिंग न करिये, करिये और जरूर करिये मगर आज को भी जी लिजिये और समय मिलते ही खुद को, परिवार को और अपने दोस्तों को दिल से लगाइये। यही वो पल हैं जो याद बन जाते हैं।
           अगर आप जिन्दगी को समझना चाहते हैं तो खुशी को पाना छोड़िये, उसे ढू़ढना सुरु किजिये। छोटी छोटी बांतों में, बचपन में, आपसी लगावी बहस में और यारों में। बाकि कितना भी कमा लो या न कमाओ तनाव तो आना ही है। निर्भर आप पर करता है आपको जिन्दगी बड़ी जीनी है या लम्बी।
✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०
     


Monday, June 15, 2020

swarnim sahitye

सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये"


"सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये"

कल की ही घटना है,
मगर लगता जैसे अर्सा हुआ प्रभात हुये,
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

तृष्णा से परिपक्वता तक,
जरूरत से आपूर्ति तक,
बिहार से बॉलीबुड तक,
तुम हर जगह माहिर साबित हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

कभी काई पो छे, कभी राब्ता,
कभी सोनचिड़िया, कभी दिल बेचारा,
कभी धोनी तो कभी छिंछोरा,
बन सबके दिल पर सवार हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

अदाकारी ऐसी की नजर न हटे,
किरदार की पकड़ से न कभी भटके,
हर पैमाने पर जो खरा उतर सके,
दूसरे नायक जाने कब मन से बाहर हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

आवाज में रौब, कपोल पर चमक,
लचीला बदन, सबकुछ सीखने की ललक,
हर जगह गूंजतीं व्यक्तित्व की खनक,
फिर बिन कुछ बोले क्यों चुप हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

खबर आयी तो यकीं न हुआ,
चक्षु चौंके, मन स्तब्ध हुआ,
मस्तिष्क स्थिल, दिल धक् हुआ,
न सूझा कुछ, विचार भी आहात हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

कितनों की आशा ज्योत थे तुम तो,
कितनों के प्रेरणास्त्रोत थे तुम तो,
सकारात्मकता से ओत-प्रोत थे तुम तो,
फिर क्यों हमारे नैंनों से ओझल हुये
ओ उन्मुक्त हंसी के मालिक
सुशांत.... तुम क्यों शान्त हुये.......

भावपूर्ण श्रद्धाजंलि🙏💐

सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

सिकन्दरा, आगरा


Thursday, June 11, 2020

"मौत पहचानती आंखें"

  "मौत पहचानती आंखें"     

                 युधिष्ठिर जब स्वर्ग के द्वार पर पहुंचे तो उनके साथ, उनका कुत्ता भी था। जो साथ में स्वर्ग गया। सृष्टि के प्रारंम्भ से उन कुछ प्रमुख जानवरों में से कुत्ता भी है जो हमेशा से मानव के साथ रहता आ रहा है और अपनी वफादारी के सबूत देता रहा है। मैंनें विज्ञान में अक्सर पढ़ा है कि उन जानवरों में जिन्हें स्वप्न आते हैं, उनमें कुत्ता भी है और इनके पास "आंखें जो मौत देख सकती हैं", होती हैं। इन्हें किसी भी प्रकार की बड़ी घटना का पहले से अंदेशा हो जाता है और इनका व्यवहार बदल जाता है।
         टाबी एक एनीमल लवर है और खासकर कुत्ता प्रेमी। जादा उम्र नहीं है उसकी मगर प्यार जताने की उम्र भी कहां होती है। २४ साल की उम्र में उसने अपने मोहोल्ले के कुत्तों में काफी प्यार कमा लिया। रोज शाम को ३-४ बिस्किट के पैकेट ले जाकर बांटता वो और कुत्ते भी दुम हिला हिला के उसके चारों ओर घूमते, और उसकी छाती तक चढ़ जाते। उन सबमें स्वीटी बहुत प्यारी थी उसे। व़ो जब भी कुछ भी खाने का लेकर जाता स्वीटी भागकर उसके पास आ जाती, पूंछ हिलाती हुई, सर आगे पीछे करती हुई और अगले पैरों को मोड़कर पिछले पैंरों में घुसा लेती। कभी कभी तो लाड़ में लेट जाती और उल्टी हो जाती। टाबी का पीछा करते-करते कभी-कभी तो घर के गेट तक आ जाती मगर मां-बाबू जी को कुत्ते पसन्द नहीं थे तो टाबी गेट से ही विदा कर देता उसे।
          काम से जब कभी देर रात टाबी लौटता तो कितना भी अंधेरा हो और बाकी कुत्ते भले ही दूर से न पहचान पा रहे हो टाबी को और भौकं रहे हो, मगर स्वीटी दूर से ही पूंछ हिलाती हुई आती और लगभग उसके ऊपर चढ़ सी जाती। जो भी कुछ उसके पास खाने का होता, दे देता या न भी होता तो उसे कुछ वक्त जरूर देता। स्वीटी उसको मौहल्ले के गेट के आस पास ही मिलती थी अक्सर। ये जो मोहल्ले में कुत्ते बढ़े थे वो सब स्वीटी की पैदाईस थे और टाबी को जब भी पता चलता की स्वीटी गर्भवती है वो मां से कहकर कुछ न कुछ बनवाता उसके लिये, आते जाते ख्याल रखता उसका।
            अनेंकों बार स्वीटी के अजीब व्यवहार से बाहरी लोगों को मोहल्ले में घुसने से रोका गया। एक बार तो जब स्वीटी टाबी के घर के बाहर एक ही जगह को देखकर बार-बार भौंक रही थी, तो टाबी देखने गया कि माजरा क्या है तो पाया कि वहां एक बड़ा काला सर्प था, जिसे ये घेरे खड़ी थी और भौकं-भौक के उसे आगे न बढ़ने दे रही थी। खैर बाद में सर्प को पकड़कर स्वीटी को खूब शाबासी मिली। ऐसे अनगिनत किस्से थे जिसमें स्वीटी का भरपूर योगदान रहा। आप उसे रोटी दे, न दें मगर वो पूरे मोहल्ले की अघोषित और बिना वेतन की चौकीदार थी।
        बचपन कब बुढ़ापे मैं बदला पता न चला, और स्वीटी धीरे धीरे कमजोर होने लगी, उसकी खाल सी लटक गयी थी, और दांत भी ज्यादा नहीं बचे थे। वो फिर भी अपना कर्तव्य निभाने में अपने जवान बच्चों के साथ लगी रहती कि जैसे उन्हें सीखा रही हो स्वामी भक्त क्या होता है। एक दिन जब टाबी काम पर जा रहा था तो स्वीटी उस पर खूब भौंकी, टाबी ने प्यार से सर पर हाथ फिराया और वो शांत हो गयी। टाबी ने कुछ बिस्किट दिये और वो बस टाबी को देखती रही, टाबी ने उसकी आंखों में अजीब सी मायूसी देखी फिर बोला,"शाम को मिलतें हैं स्वीटी।" और चला गया।
          टाबी शाम क़ो लौटा तो हाथ पैर धोकर जल्दी बैग से बिस्किट निकालें और मम्मी से बची कुची रोटियां मांगी और निकल गया स्वीटी से मिलने, उसने खूब सीटी बजाई, आवाज लगाई, बाकी कुत्ते आ गये मगर स्वीटी कहीं नहीं दिखी। वो उनको खाना खिला के स्वीटी की तलाश में निकला तो थोड़ी बहुत मस्सक्कत के बाद ही स्वीटी को पार्क की उन झाड़ियों में पाया, जहां व़ो अक्सर अपने बच्चों को जन्म देती थी। आज निश्छल और भाव विहिन पड़ी थी, टाबी ने खूब सीटी बजाई मगर वो तो अपना कर्तव्य पूरा कर सेवानिवृत्त हो चुकी थी। टाबी दु:ख से वहीं बैठ गया और सुबह वाली स्वीटी की आंखें याद आने लगी, जब टाबी ने बोला था कि शाम को मिलतें हैं, और वो जैसे अपनी मौत देख चुकी हो, कह रही हो कि बाबू शाम तक का वक्त नहीं है हमपे। वो भौकं भी इसलिये रही थी क्योंकि वो शायद आज टाबी के साथ रहना चाहती थी। टाबी की आंखों में आंसू थे और हाथ में कुछ बिस्किट के पैकेट।
स्वरचित✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

चीटी

"चींटी"

पग पग धरती, आंगे बढ़ती,
कुछ सकुचाती, कुछ ठहरती,
ऊंचे-नीची हर जगह रेंगती,
रूकने का कभी नाम न लेती.....

तिनके सी है पर कौशल बड़ा है,
इनके आगे न कोई ठिका है,
मन इनका भी कभी अड़ा है, कभी लड़ा है,
मनके हिसाब से कब हैं चलती
पग पग धरती, आंगे बढ़ती,
कुछ सकुचाती, कुछ ठहरती....

हो झुंड में या अकेले,
हिम्मत नहीं, कोई पंगें लेले,
हर मौसम को ये सह लें,
गज से भी तनिक न डरती
पग पग धरती, आंगे बढ़ती,
कुछ सकुचाती, कुछ ठहरती....

चींटीं नहीं, अध्यापक है ये,
निरन्तरता की वाहक है ये,
सक्रियता सीखाने में सहायक है ये,
फिर भी कभी घमण्ड न करती
पग पग धरती, आंगे बढ़ती,
कुछ सकुचाती, कुछ ठहरती,

कई रंग और कई प्रजाति हैं इसकी,
सब सिखाती शिक्षा देखो एक सी,
चलते रहो बस दुनिया की ऐसी-तैसी,
ये दुनिया तो हमेशा ही है रोकती
पग पग धरती, आंगे बढ़ती,
कुछ सकुचाती, कुछ ठहरती....
स्वरचित✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०


Wednesday, June 10, 2020

"हीटर और ऐलीमेंट"

     "हीटर और ऐलीमेंट"

           कहानियों का क्या है, कहानी तो बनती रहती हैं, अच्छी-बुरी, लघु-दीर्घ, मनमोहक-हृदय विधारक। जिन्दगी के हर मोड़ पर एक कहानी तैयार होती है, बस जरूरत है पात्रों और घटनाओं को संजोनें और समझने की और ऐसी ही एक कहानी है, हीटर और एलीमेंट  की। ये कहानी हीटर की तरफ से है।

            मैं(हीटर) जब निर्मित हुआ तो दो-तीन तरह की मिट्टी मिलायी गयी और फिर पकाया गया, उससे काफी मजबूत हो गया मैं और फिर मुझमें चीनी मिट्टी का एक सोकेट फिट किया गया, जिससे उसमें तार जोड़े जा सके, और मुझमें विद्युत बह सके। ऐसे मेरा ८०प्रतिशत शरीर तैयार हो चुका था मगर आत्मा का आना बाकी था अभी और फिर पीली सी पिन्नी में गोल-गोल वो बैठी थी, पैक बिल्कुल। वो आयी और मुझमें समा गयी। बलयाकार उसका शरीर, मेरे शरीर में ऐसे समा गया कि जैसे मेरा निर्माण उसके लिये हुआ हो और वो सिर्फ मेरी ही हो।

           बिजली के तार जोड़ दिये गये और वो सुर्ख लाल चमक उठी, उसका अंग-अंग मेरे शरीर में चमक रहा था, मुझमें दहक रहा था और मैं बस अपने आपको उसके मुझमें समाहित होने से निर्जीव से सजीव महसूस कर रहा था। मालिक ने मेरे ऊपर एक चायदान रखा, उसमें थोड़ा पानी था। हम दोनों ने मिलकर उसे पकाया, चाय बनी और मालिक को हमारे जिस्म की गर्मी का एहसास हुआ। ये रोज का सा हो गया था अब, वो मुझमें समायी रहती और जैसे ही कोई बटन दबाता, वो मुझमें जान ले आती। कितनी सब्जीयां, कितनी दालें, पनीर, रोटियां और न जाने क्या-क्या हम दोनों ने साथ बनाये।
        हम दोनों की जोड़ी लाजबाब थी। मैं तो बड़ा खुश रहता था। फिर एक दिन कुछ शॉर्ट-सर्किट सा हुआ और वो धीरे से बन्द हो गयी, जैसे लगातार काम करने की वजह से बिमार हो गयी हो। मालिक ने पेचकस से कुछ दवाई दी और वो फिर होश में आयी। हम दोनों ने फिर से काम प्रारम्भ कर दिया मगर अब उसमें पहले जैसा तेज नहीं बचा था। एक दिन वो टूट गयी बीच से, जैसे आंदोलन पर हो, "मुझसे नहीं होता अब ये काम।" मगर मालिक भी पक्का जुगाड़ु, उसको फिर जोड़ दिया गया। हम फिर काम पर लगे, मैंनें भी उसे समझाया, "कि क्या फायदा, काम पर ध्यान दो।" वो आंखें में थोड़ी सी लालिमा लाये बोली, "प्रिये तेरी मेरी कहानी यहीं तक थी, अब मेरा सफर खत्म होता है, चलती हूं मैं।" मैं पूछता रह गया, "कहां जा रही हो?"और वो इस बार २-३ टुकड़ों में टूट गयी, यही अंत था उसका शायद। उसके काले पड़े ठण्डे शरीर को मैंनें काफी वक्त खुद में रखा। काली इसलिये भी हो गयी थी वो क्योंकि कभी-कभी उस पर दूध-दाल आदि फैल जाता था, मालिक की गल्ती से और अपनी इस कुरूपता का बदला भी वो कभी सब्जी जला के या मालिक को हल्का-फुल्का करेंट लगा के ले लेती थी।
       खैर मालिक आया और उसने अपने झोले से वही पीली पिन्नी फिर से निकाली और मेरी दूसरी शादी कर दी गयी। ये तो पहले वाली से भी जादा तेज के साथ आयी थी और हम लोग फिर से काम में लग गये।
स्वरचित✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०

Tuesday, June 9, 2020

"अनुकूलन"

    "अनुकूलन"

         समय कभी-कभी परिस्तिथियों को ऐसे बनाता है कि आप चाह कर भी उनसे बच नहीं सकते, आपको खुद को बदलकर या स्तिथी का सामना करके उसके अनुकूल बनना ही होता है। मेरे ख्याल से यही संसार का नियम भी है, जो बदलाव नहीं स्वीकारता या अनुकूलन नहीं अपनाता वो हौले हौले मिट जाता है।
         घर पर बैठी सुधा अपनी ही मां के ताने सुन रही थी, इसी की गल्ती होगी,ये ही सब नाटक करती है, हमेशा इसी ने नाक में दम किया... वो बस सुन रही थी और अतीत में खो गयी। तीन भाई बहनों में वो सबसे छोटी है, दो बड़े भाई थे, तो हमेशा ही वो कैद और बंधन में‌ रही। उसने भी वैसे ये सब अपनी नियति सी मान लिया था। जैसा बाबा ,मां या भाई बताते, करती रहती। उसके ना कोई सपने थे और कोई इच्छा ही थी खुद के लिये। कम बोलने वाली, खुद में रहने वाली और बस अपने काम से काम रखने वाली ऐसी लड़की बन गयी थी वो।
         पढ़ने में भी ठीक ठाक थी। बड़ा भाई कालेज छोड़ने-लेने जाता, तो छोटा भाई ट्यूशन तक जाता, शाम को पिताजी भी उससे पढ़ाई के बारे में जरूर पूछते। उसकी कोई घनिष्ट सहेली भी नहीं थी, क्योंकि दोस्ती वक्त मांगती है और वक्त उसके पास था ही नहीं। ९क्लास में आयी तो किसी ने उससे नहीं पूछा कि उसको कौन से विषय लेने हैं या क्या पढ़ना है,बनना है। बस बड़े भाई ने अपने हिसाब से फार्म भर दिया और उसने स्वीकार लिया। ये हमेशा का ही था वैसे भी। इस दौरान कई लव शावक उसके पीछे रहे और वो समझ भी जाती मगर वो थी ही इतनी निष्कीर्य की वो सब खुद ही अपना रास्ता नाप लेते।
       बारहवीं के बाद कॉलेज बाबा ने बता दिया और प्रवेश दिला दिया गया। रोज छोटा भाई छोड़ आता और वही लेकर आ जाता। सुविधा के लिये उसको एक छोटा फोन दिलवा दिया गया था, जिससे वो बहुत कम ही लगाव रखती, बस अपनी स्तिथी बता देती, कि इतने बजे क्लासेस खत्म होंगी। उसने अब तक सब कुछ अपनी नियति और घरवालों पर छोड़ रखा था,उनहीं के अनुकूल थी वो। तभी मंयक ने एक दिन उसको प्रपोज कर दिया, पसन्द तो वो भी मंयक को करती थी मगर वो तटस्थ रही है हमेशा। मिल जाये तो ठीक, न मिले तो ठीक।
       उसने मना कर दिया और बस इतना बोली,मंयक मैं ये सब वाली नहीं हूं, तुम भी अपना समय मेरे लिये बर्बाद न करो, कहीं और सोचो। और चल दी। ये बात करते हुये छोटे भाई ने देख लिया और उसने बाबा को बता दिया। बाबा ने दुगुनी गति से लड़का ढ़ूढ दिया और तय कर दी गयी शादी। हमेशा की तरह सुधा को सब स्वीकार था। शादी के बाद ससुराल पहुंची तो एक माह में ही सास-ननद ने हर तरह से कोस कोस कर उसका बुरा हाल कर दिया।
    वो तो लगभग धैर्य की देवी थी ही, इसे ही उसका घमण्ड समझा गया, कि ये जादा बोलती नहीं है, सीखना नहीं चाहती कुछ भी, बात नहीं करती और तो और कुछ भी कहते रहो जबाब नहीं देती। उन लोगों को क्या पता, जब आपने पौधे के चारों तरफ जाल लगा ही दिया है तो वो तो सीधा बढ़ेगा ही, अब जाल हटा भी दो तो क्या फायदा उसे ऐसे ही रहने में मजा जो आने लगा और आज उसका पति उसे घर छोड़ गया, ये कहते हुये कि इस पत्थर की मूरत को आप रखिये, रोबोट सा बना दिया है बिल्कुल। जब घर में सब ठीक हो जायेगा, ले जाऊंगा मैं।
        मां अभी भी बड़बड़ा रही थी और सुधा को पता ही नहीं था कि उसका अपराधी कौन है, घरवाले, समय या वो खुद।
स्वरचित✍️
सुमित सिंह पवार "पवार"
उ०प्र०पु०